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णमोकार ग्रंथ
ur श्री नेमिनाथ तीर्थंकरस्य विशेषाख्यानम् :
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यदुव' शोद्भव समुद्र विजय नामक यदुबशियों में प्रधान राजा थे। उनकी प्रधान महारानी का नाम शिवादेवी था। इन्हें धर्म से बड़ा प्रेम था। दोनों ति बड़े हंसमुख और प्रसन्न रहते थे सुख की इन्हें चाह न थी । पर सुख ही इनका अनुचर बन रहा था। इस प्रकार सुख पूर्वक समय व्यतीत होने पर एक दिन सती शिवादेवी ने अपने शयनागार में आनन्द शयन करते हुए जिनेन्द्र के अवतार के सूचक रात्रि के पश्चिम पहर में गजराज, वृषभ, केशरी प्रादि सोलह पदार्थ स्वप्न में देखे ! पश्चात् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को देखा । इन्हें देखकर वह जाग उठी । प्रातः काल होते ही वह अपने स्वामी के पास गयी और उन्हें रात्रि में देखे हुए स्वप्नों का व तांत ज्यों का त्यों कह सुनाया । सुनकर महाराज समुद्रविजय उसके फल के सम्बन्ध में कहने लगे कि 'प्रिये ! स्वप्न तुमने बड़े ही सुन्दर और उत्तम देखे हैं। इनके देखने से सूचित होता है कि भव्य जीव रूपी कमल वन को प्रफुल्लित करने वाले तीर्थंकर तुम्हारे गर्भ में अवतार लेंगे। जिसकी आशा का सन्मान देवता तक करते हैं। अपने पतिदेव द्वारा स्वप्न का फल सुनकर शिवादेवी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। सच है, पुत्र प्राप्ति से किसे प्रसन्नता नहीं होती। कुछ दिनों पश्चात् त्रिलोक पूज्य गर्भ की दिनोंदिन व द्धि होने लगी। जिनके प्रभाव से जन्म होने के छह महीने पहले ही से प्रतिदिन देवता त्रिकाल रत्त वर्षा करते थे। गर्भ पूर्ण दिनों का हुआ | श्रावण मास शुक्ल पक्ष में छठ के दिन शुभ मुहूर्त में चित्रा नक्षत्र का योग होने पर सौभाग्यती शिवादेवी ने शुभ लक्षण संयुक्त श्याम वरण सुन्दर पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र के उत्पन्न होते हो नगर भर में प्रान्नदोत्सव होने लगा। उधर सौधर्मेन्द्र अवधि ज्ञान से भारत वर्ष में तीर्थराज का अवतार हुआ जानकर उसी समय ऐरावत गजराज पर श्रारूढ़ हो अपनी इन्द्राणी और देवों सहित बड़े महोत्सव के साथ द्वारिकापुरी में माया और सभक्ति नगरी की तीन प्रदक्षिणा की। उसके बाद अपनी प्रिया को भगवान को लाने के लिए राज महल में भेजा । इन्द्राणी प्रसूति गृह में गयी और वहाँ अपनी दिव्य शक्ति से ठीक वैसा ही मायावी बालक रखकर श्री नेमिनाथ को उठा लाई । लाकर उस सुन्दर और तेज पुंज बालक को अपने प्राणप्रिय को सौंप दिया । इन्द्र उन्हें ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े समारोह के साथ सुमेरु पर्वत पर ले गया। पांडुक वन में ले जाकर पांडुक वन की ईशान दिशा में स्थित अर्द्ध चन्द्रमा के प्राकार से अनेक तीर्थकरों के जन्मभिषेक से पावन कलधौत वर्ण की धारक पूर्वपश्चिम में सौ योजन लम्बी, दक्षिणोत्तर पचास योजन चौड़ी और आठ योजन प्रमाण ऊंची पांडुक नामक शिला पर स्थित रत्न जडित स्वर्णमय सिहासन के ऊपर पद्मासन युक्त पूर्व मुख श्रानन्द कंद जिनेन्द्र चन्द्र श्री नेमिनाथ भगवान की स्थापना कर क्षीर समुद्र के स्फटिक से भी उज्जवल और निर्मल जल से इनका अभिषेक किया । क्षीराभिषेक हो चुकने के पश्चात् केशर चन्दनादि सुगन्धित वस्तुनों का विलेपन कर स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से भगवान को विभूषित किया। उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी पूजा की। अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का निर्मल पवित्र भावों से बहुत काल पर्यन्त गायन किया और पीछे वह उन्हें ऐरावत गजराज पर बैठाकर द्वारकापुरी में वापस ले आया । तथा अपनी प्रिया के द्वारा भगवान् को शिवादेबी के निकट पहुंचा दिया । जब शिवादेवी की निन्द्रा खुली और पुत्र को दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित देखा तो उसे बड़ा विस्मय हुआ और साथ ही परमानन्द भी हुआ। इसके पश्चात् इन्द्र, भगवान् की पवित्र भक्ति में निमग्न हुआ इस मंगलमय समय में तांडव नृत्य करने लगा और भगवान के मातापिता के गुणों का गायन किया। तदनंतर भगवान और उनके माता-पिता के चरणारविंदों को बारम्बार