SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमोकार श्रेय विद्युत चोर मगधसुन्दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा सुनकर पहले तो कुछ हिचका, पर साथ हो उसके प्रेम ने उसे हार चुराकर लाने को बाध्य किया । उसे अपने जीवन को भी कुछ परवाह न करके इस कठिन कार्य के लिए भी तत्पर होना पड़ा। वह उसे संतोष देकर उसी समय वहां से हार चुराने के लिए थीकीति सेठ के महल पहुंचा । उसने उनके शयनागार में पहुंचकर उनके गले में से अपनी कार्यकुशलता के साथ हार निकाल लिया। फिर बड़ो शीघ्रता से वहाँ से चलता बना । वह पहरेदारों के मध्य में से साफ निकल जाता पर अपने दिव्य तेज से घोर अन्धकार का नाश करने वाले हार ने उसके परिश्रम पर कुछ भी दृष्टि न देकर उसके प्रयत्न को सफल न होने देने के लिये अपने दिव्य प्रकाश कोन रोका । इससे उसे भागते हुए सिपाहियों ने देख लिया और फिर उसे पकड़ने को दौड़े विद्युत चोर भी खब तीव्रता से भागा और भामता-भामता शमशान की ओर जा निकला। उस समय वारिषेण वहाँ कायोसर्ग ध्यान कर रहा था । विद्य त् बोर ने वहां ही उचित मौका देकर अपने पीछे आने वाले सिपाहियों के पंजे से छूटने के लिये उस हार को वारिषेण के आगे डाल दिया और वहां से भाग गया । इतने में सिपाही भी वहाँ प्रा पहुंचे । वे सिपाही ध्यान में स्थित वारिषेण को हार के पास खड़े देखकर भौच्चके से रह गये । वे उसे उस अवस्था में देखकर हँसे और बोले-वाह ! चाल तो खूब खेली। मानों हम तो कुछ जानते ही नहीं मुझे धर्मात्मा और ध्यानी जानकर सिपाही छोड़ जाएंगे ऐसा सोच रहे हो पर याद रखिए। हम लोग अपने स्वामी की सच्ची नौकरी करते हैं। हम तुमको कभी नहीं छोड़ेंगे।' यह कह कर वारिषेण को बाँधकर राजा श्रोणिक के पास ले गये और कहने लगे -महाराज! ये हार चुराकर लिये जा रहे थे । अतः हमने इन्हें पकड़ लिया। यह सुनते ही राजा श्रोणिक के हृदय में क्रोध का प्रावेश हो गया और उनका चेहरा लाल हो गया । अाँखों से क्रोधाग्नि की चिनगारियां निकलने लगीं। उन्होंने सिंह के समान गरज कर कहा-देखो ! 'इस पापो का नीच कम, जो श्मशान में जाकर ध्यान करता है और लोगों को यह दिखलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा और ध्यानी हूँ, ठगता है। धोसा देता है । रे पापी ! कुल कलंक ! देखा मैंने तेरे धर्म का ढोंग 1 सच कहा है कि दुराचारी मनुष्य लोगों को धोखा देने के लिये क्या अनर्थ नहीं करते ? जिसको मैं राज्य सिंहासन पर बैठाकर जगत् का अधीश्वर बनाना चाहता था, अच्छा जो इतना दुराचारी है, प्रजा को धोखा देकर ठगता है उसे यहां से ले जाकर इसका मस्तक छेदन कर दो ! अपने खास पुत्र के लिये ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्रलेख से होकर श्रेणिक महाराज की ओर देखने लगे सबकी आंखों में पानी भर आया-पर किसका साहस, जो उनकी प्राज्ञा का प्रतिवाद कर सके ! जल्लाद उसी समय वारिषेण को बध्यभूमि में ले गये और उसी समय उनमें से एक ने खड़ग निकालकर उनकी गर्दन पर मारा। पर कैसा आश्चर्य ! उनकी गर्दन पर बिल्कुल घाव नहीं हुआ, अपितु वारिषेण को उल्टा यह जान पड़ा मानों किसी ने उस पर फूलों को माला फेंकी हो । जल्लाद लोग देखकर दांतों तले उंगली दवा गये । वारिषेण के पुण्य ने उस समय इसकी रक्षा की। सब कहा है बने रणे शत्रजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके था। सुप्तं प्रमत्त विषमस्थित वा रक्षति पुण्यानि पुरस्कृतानि ।। अर्थात निर्जन वन, रण, (संग्राम) शत्रु, जल, अग्नि इनके मध्य में, तथा महार्णव के मध्य में, पर्वत के शिखर पर, सुषुप्तावस्था में, विकराल विषम स्थान में स्थित होने पर पूर्वोपाजित पुण्य कर्म रक्षा करता है । और धर्मात्मा व पुण्यवान मनुष्यों को कहीं कष्ट नहीं होता। उनके पुण्य के प्रभाव से दुःख रूपी सामग्री भी सुख रूप में परिणित हो जाती है।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy