SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमोकार ग्रंथ यथोक्तं अहो पुण्येन तोवाग्निर्जलरवं भूतले, समुद्र स्थलतामेति विषं च सुधायते (१) शत्रु मित्रत्वमाप्नोति विपत्तिः सम्पदामते । तस्मान्सुखैषिणो भन्योः पुण्यं कुर्वतु निर्मलम् । (२) अर्थात् पुण्य के उदय से हवन से उत्तेजित ऊपर को उड़ रहे हैं स्फुलिंग जिसके, ऐसी तीवाग्नि भी जल रूप हो जाती है, भयंकर विकराल समुद्र स्थवरूप हो जाता है। प्राणों का घातक हलाहल विष अमत हो जाता है। अपने नाममात्र के उच्चारण को श्रवण करने में असमर्थ ऐसे शत्रु मित्रा मित्र हो जाते हैं। दुःस्त्र चिंता रूपी ज्वालाओं से मन को संतप्त करने वाली विपत्ति संपत्ति के रूप में परिणत हो जाती है । इसलिए जो मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं, उनको पवित्र कार्यों द्वारा पुण्योत्पादन करना चाहिए। जिन भगवान् के चरण कमलों की पूजा करना, चतुर्विध दान देना, व्रत उपवास करना, स्वाध्याय करना, परोपकार करना, सब जीवों को अभयदान देना, सदा मायाचार रहित पवित्र चित्त रहना, पंचपरमेष्ठी की भक्ति करना, हिंसा, मठ, चोरी आदि पाप कर्मों का न करना, पुण्य उत्पन्न होने के कारण हैं। वारिषेण की यह आश्चर्यजनिक अवस्था देखकर सब उसकी जयजयकार करने लगे। देवों ने प्रसन्न होकर जयजयकार उच्चारण करते हुए उन पर सुगंधित फूलों की वर्षा की । नगर निवासियों को इस समाचार के सुनने से बड़ा आनन्द हुआ । सबने एक स्वर में कहा वारिषेण तुम धन्य हो । वास्तव में तुम साधु पुरुष हो ! तुम्हारा रिट बहुंत निर्मल है। तुम हिट भगवान् के सच्चे सेवक हो । तुम पवित्र और पुरुषोत्तम हो ! तुम जैन धर्म के सच्चे पालन करने वाले हो । पुण्यपुरुष ! तुम्हारी जितनी प्रशंशा की जाए उतनी थोड़ी है। सच है, पुण्य के प्रभाव से क्या नहीं होता? महाराजा थेणिक ने जब इस अलौलिक घटना का वृत्तांत सुना तो उनको भी इस अपने बिना विचारे किये हुए कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुमा । ये दुःखी होकर बोले ये कुर्वति जड़ात्मानः कार्य लोकेऽविचार्य च ते सीदति महत्तोऽपि मावृशा दुख सागरे। अर्थात् जो मूर्ख लोग आवेश में प्राकर विना बिचारे किसी कार्य को कर बैठते हैं वे फिर बड़े ही क्यों न हों, उनको मेरी तरह से दुःख सागर में पड़ना पड़ता है । अतएव चाहे कैसा भी काम क्यों न हो, उसकोबड़े विचार के साथ करना चाहिये । श्रेणिक महाराज इस प्रकार बहुत कुछ पश्चाताप करके अपने पुत्र वारिषेण के पास वध्यभूमि में पाये । वारिषेण की पुण्यमूर्ति को देखते ही उनका हृदय पुत्र प्रेम से भर पाया । उनकी प्रॉखों से अश्रुपात होने लगे । बड़े प्रेम के साथ उसने अपने पुत्र को छाती से लगाया और रोते हुये कहने लगे--प्यारे पुत्र ! मेरी मूर्खता को क्षमा करो। मैं क्रोध के प्रावेश में पाकर अंधा हो गया अर्थात् विचारहीन हो गया था। इसलिए पूर्वापर का कुछ विचार न करके मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया । हे पुत्र ! पश्चाताप रूपी अग्नि में मेरा हृदय जल रहा है । उसे अपने क्षमा रूपी जल से शान्त कर दो। मैं दुःख रूपी सागर में डूबा हुमागात खा रहा हूँ। मुझ प्रब कृपा रूपी सहारा देकर निकाली। अपने पूज्य पिता की यह हालत देखकर वारिषेण को बहुत कष्ट हुआ। वह बोला पिता जी! आप यह क्या कहते हैं ? आप अपराधी कैसे ? आपने तो अपने कर्तव्य का पालन किया है अपने कर्तव्य का पालन करना कोई अपराध नहीं। न्यायी पुरुषों का यही धर्म हैं कि चाहे अपना पुत्र हो या भाई तथा कैसा ही स्नेही क्यों न
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy