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________________ णमोकार ग्रंथ १t हो. उसको अपराध करने पर अवश्य ही यथायोग्य दण्ड देते हैं । पक्षपात कदाचित नहीं करते। जैसे नीतिकार ने कहा है-- बडो हि केवलीहलोकमिमंचामुच रक्षति । राशा शत्रौ च पुत्रे च यथा दोष शमं धृतः । प्रति चाहे राजा का शत्रु हो अथवा पुत्र हो, उसके किए हुए दोष के अनुसार दण देना हो राजा को इस लोक और परलोक में रक्षा करता है। मान लीजिए कि यदि पाप पुत्र-प्रम के वश होकर मेरे लिए बाज की प्रासादे तो सोना क्या समझती ? चाहे मैं मपराधी नहीं भी था, तब भी क्या प्रजा इस बात को देखती ? कदापि नहीं । वह तो यही समझती कि राजा ने अपना पुत्र जानकर छोड़ दिया । पिताजी ! आपने बहुत बुद्धिमानी का कार्य किया है । आपकी नीति परायणता को देखकर मेरा हृदय प्रानन्द समुद्र में मग्न हो रहा है । मापने प्राज पवित्र वंश को लाज रख ली। यदि माप ऐसे भी अपने कर्तव्य से शिथिल हो जाते तो सदा के लिये कुल को कलंक का टीका लग जाता। इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए न कि दुःखी । हाँ, इतना अवश्य हुआ कि मेरा इस समय पाप कर्म का उदय था जो मुझे निरपराधी होते हुए भी अपराधी बनना पड़ा, परन्तु मुझे इस बात का किंचित भी खेद नहीं क्योंकि 'अवश्य मेवभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।' जो जैसा शुभाशुभ कर्म करता है उसको तदनुसार शुभाशुभ फल भी अवश्य भोगना पड़ता है। फिर मेरे लिए कर्मों का फल भोगना कोई नई बात नहीं है। पुत्र के ऐसे उन्नत और उदार विचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रानन्दित हुए और सब दुःखों को विस्मरण कर कहने लगे -पुत्र ! सत्पुरुषों ने बहुत ठीक लिखा है चंदन शुष्यमाणं , वह्यमानो यथाऽगुरु: नयाति विक्रिया साधुः पीडितोऽपि तथाऽपरः ।। अर्थात चंदन को कितना भी घिसिये, अगरु को खूब जलाइये, उससे उनका कुछ न दिगड कर उल्टी उनमें से सुगंधि निकलती है । उसी प्रकार सत्पुरुषों को दुष्ट लोग कितना भी सतावें, कितना ही कष्ट दें, पर वे उससे कुछ भी विकृत अवस्था को प्राप्त न होकर सदा शान्त रहते हैं और अपने को कष्ट देने वाले पर प्रत्युपकार ही करते हैं। बारिपेण के पुण्य का प्रभाव देखकर विद्य त् चोर को बहुत भय हेया। उसने सोचा कि यदि राजा को मेरा इनके चरणाग्र भूमि में हार फेंकने का वृत्तांत मालूम हो जाएगा तो मुझे बहुंत कठोर दण्ड देंगे। इससे मैं स्वयं ही जाकर उनसे सब सत्य-सत्य वृत्तांत कह दू जिससे कदाचित मुझको वे क्षमा कर दें। ऐसा विचार कर विद्युत्चोर राजा के सम्मुख उपस्थित होकर हाथ जोड़ सविनय निवेदन करने लगा-महाराज ! यह सब पाप कर्म मेरा है । पवित्रात्मा वारिषण सर्वथा निर्दोष है । पापिन देश्या के मोहजाल में फंसकर यह नीच कृत्य मैंने किया था। पर भाष से मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। मुझे दयाकर क्षमा कीजिए। राजा श्रेणिक विद्युत चोर को अपने नीचकर्म के पश्चाताप से दुखित देखकर अभयदान देकर अपने प्रिय पुत्र वारिषेण से बोले-पुत्र ! अब राजधानी में चलो। तुम्हारी माता तुम्हारे वियोग से बहुत दुखी हो रही होंगी। अपने दर्शन देकर उनके नेत्रों को तृप्त करो । तव सांसारिक विषय भोगों से पराइ.. मुख वारिषेण अपने पूज्य पिता के इन स्नेह युक्त वचनों को सुनकर बोले-'हे पिता ! मुझको क्षमा कीजिए। मैंने संसार की लीला बहुत देख ली । मेरी आत्मा पब उसमें प्रवेश करने के लिए मुझे रोकती
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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