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________________ णमोकार प १७ बहुशानी प्रध्यापक का नाम न लेना क्योंकि ऐसा करने से मायाचार का दोष पाता है, सो निवाचार हैं। ____ इस प्रकार जो भव्य जीव इन अष्टविध प्राचारों के रक्षापूर्वक पागम का पठन-पाठन करते हैं, उन्हें शानावरण कर्म का क्षयोपशम विशेष होकर सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है, सम्पूर्ण विद्यानों की सिद्धि हो जाती है. वे शीघ्र ही परिशीलन (अभ्यास) रूप नौका के द्वारा ज्ञान सागर में पारंगत हो जाते हैं, उनकी बुद्धि प्रतिशय विशाल हो जाती है, हेयाहेय का ज्ञान होकर सन्मार्ग रूप प्रवर्तन करने से अनेक कर्मों का संवर और क्षय हो जाता है और साथ-साथ कौति विवेक प्रदि उत्तम गण भी सदा बढ़ते रहते हैं, इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को मालस्य रहित होकर सदैव सम्पग्यज्ञान (जिनागम) का अभ्यास करते रहना चाहिए । ज्ञान की उपासना करने से भव्य जीव भुक्ति और मुक्ति दोनों को प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि शास्त्राभ्यास करते रहने से यह मेरा स्वरूप है यह पर का है, ये पदार्थ हेय हैं, ये उपादेय हैं ? इत्यादि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान होता है । जब तक ये पदार्थ भेद अवगत नहीं होता है, तब तक जीव मात्म स्वरूप को नहीं जान सकता। जिस समय से प्रात्मा की स्वपर विवेक होकर हेयोपादेय रूप प्रवृत्ति होने लगती है । तब ही से अशुभ कर्मों की निर्जरा तथा संवर होने से प्रतिक्षण में शुम (पुण्य) कर्मों का प्रास्त्रव होने लगता है जिसके फल से वाल्पवासी व महद्धिक देवों में उच्चपद का धारी देव होता है और वहाँ अनेक भोगोपभोगों को भोगकर अायु के अन्त में मनुष्य भव धारण कर परिग्रह त्यागी होकर अपना ध्यानामिकेद्वार यातियतथ्य को प्रभाव करके भूत, भविष्यत् वर्तमान तीनों काल सम्बन्धी समस्त शेय पदार्थों को प्रतिभासित करता हुआ अपने धर्मोपदेशामृत रूपी वर्षा से भव्य जीवों के संसार परिभ्रमण से संतप्त चित्त को शांत कर वह जीवन्मुक्तात्मा अन्तिम शरीर को छोड़कर सदैव के लिए परम पतींद्रिय, अविनाशी, तृष्णा रहित अनंत सुख का भोक्ता हो जाता है। इस प्रकार से सम्यग्ज्ञानपूर्वक किया हुप्रा शास्त्राभ्यास परम्परा से मोक्ष का कारण जानकर प्रत्येक व्यक्ति को निरन्तर पागम का और उसके अनुसार हितोपदेष्टा गुरुपों का भक्ति व श्रद्धा पूर्वक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष में भक्ति, पूजा, उपासना तथा गुणानुवाद करते रहना चाहिए जिससे साहस, धैर्य, दृढ़ता तथा गम्भीरता बढ़ती है, बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञानानुभव बढ़ता है और दया, क्षमा, संतोष, विनय, वात्सल्य, श्रद्धा, शील, निराकुलता, निष्कपटता प्रादि अनेकानेक उत्तमोत्तम गुण सदा बढ़ते रहते हैं, इसलिए भव्यों को सदैव शास्त्राभ्यास करते रहना चाहिए। ।। इति श्री सम्यग्ज्ञान विवरण समाप्त् ।। ॥अप सम्यक् चारित्र वर्णन प्रारम्भ ।। जिस जोव के सम्यक्त्व के नाश करने वाले मिथ्यात्व, सम्पक मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति । मिथ्यात्व इन सम्यक्त्व धातक दर्शन मोह की तीनों प्रकृतियों के नाश होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से दुरभिनिवेश रहित सभ्यशान विद्यमान है तथा जिसके चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हुमा है और जो विषय भोगादिकों से परान्मुख दृढ़ संहनन का धारक और प्रासन्न भव्य है ऐसा पुरुष तो एकाएक हिंसादि पांच पापों का पूर्ण रीति से त्याग कर परम दिगम्बर नग्न रूप धारण करके मोक्ष के मार्ग स्वरूप सम्यम्मान सहित तेरह प्रकार के चारित्र को भली प्रकार धारण कर ग्रामस्वरूप में लीन होता है और जिनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, विद्यमान है, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारित्र मोहनीय
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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