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________________ णमोकार चंय द्रव्यानुयोग - जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बंधमोक्षोप।। ब्यानयोगदीपः भतविद्यालोकमातनते॥ अर्थ-द्रव्यानुयोग रूपी दीपक जीव अजीव रूप सुतत्वों को तथा संयोग वियोग को विशेषता से उत्पन्न शेष पांच तत्वों को, पुण्य पाप को और जीव के स्वभाव विभावों को प्रकाशित करता है। इसमें द्रव्यों का विस्तृत वर्णन होने के कारण यह द्रव्यानुयोग कहलाता है। उक्त प्रकार के चार अनुयोग शास्त्र को सम्यग्ज्ञान ही सम्यक् प्रकार जानता है, अन्य नहीं, अतएव आत्म कल्याण के लिए धार्मिक विषय के जानने की उत्कंठा रखने वाले भव्य जीवों को यह सम्यग्ज्ञान इसके अष्टांग सहित पालन करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान के प्रष्ट अंगों के नाम ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधान छ। बहुमानेन समन्धितमनिङ्गवंज्ञानमाराव्यम् । अर्थात् (१) ज्ञान के शब्दाचार (२) अर्थाचार (३) उभयाचार (४) कासाचार (५) विन याचार (६) उपधानाचार (७) बहुमानाचार और (८) अनिहन्वाचार ये पाठ अंग हैं । पठन-पाठन करने वालों को इनका सदैव पालन करना चाहिए। व्याकरण के अनुसार प्रक्षर, पद, वाक्यों का उच्चारण कर मूल-मात्र के प्रागम के पठन-पाठन करने के शब्दाचार या व्यंजनाचार कहते शब्द मे र पूर्ण अर्थ को अवधारण कर पागम का पठन-पाठन करना प्रर्थाचार कहलाता है। शुद्ध शब्द और शुद्ध अर्थ सहित सिद्धांत के पठन-पाठन करने को उभयाचार व शब्दार्थोभपूर्ण कहते हैं। प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, संध्याकाल, अर्द्धरात्रि, ग्रहण, भूकम्प, उल्कापातादि सदोष समय में पठन-पाठन न करके योग्य काल में श्रुत अध्ययन करना कालाचार व कालाध्ययन है। गोसर्ग काल अर्थात् दोपहर के दो घड़ी पहले और प्रातःकाल के दो घड़ी पीछे, दोपहर के दो घड़ी पीछे और प्रातः काल के धड़ी पहले इन कालों के सिवाय दिग्दाह, उल्कापात, इन्द्रधनुष, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा भूकम्पादि उत्पादों के समय सिद्धांत (जो शास्त्र गणधर देवों के रचे हुए हैं) प्रथया ग्यारह अंग दश पूर्वधारियों के रचे हुए हैं तथा श्रुतकेवलियों के रचे हुए हैं पथवा प्रत्येक बुधि ऋखि के धारण करने वाले योगियों के रचे हुए हैं । उन ग्रथों का ऐसे समय में प्रध्ययन वजित है। तीर्थंकरों के पुराण स्तोत्र, पराधना तथा चरित्र और धर्म को निरूपण करने वाले ग्रथों का पठन-पाठन वजिस नहीं है । वे सदा पढ़ने योग्य हैं । शुद्ध जल से हस्त-पादादि प्रक्षालन कर पवित्र स्थान में पर्यकासन बैठकर पागम की स्तुति और नमस्कारादि कर श्रुतभक्ति पूर्वक पागम का अध्ययन अध्यापन करना, शान का उत्तम विनयाचार कहलाता है। धारणा सहित अराधना करना अर्थात् स्मरण सहित स्वाध्याय करना. भूलना नहीं, उपधानाधार है। शान का, पुस्तक का पौर पढ़ाने वाले का तथा शानी का बहुत प्रादर करना, प्रन्थ को लाते से जाते समय उठ खड़ा होना, पीठ न वेना, पागम को उच्चासन पर विराजमान करना, अध्ययन करते मय लोकिक वातान करना और प्रशुचि प्रग तथा पवित्र वस्त्रादि का स्पर्श न करना बहमान-पाचार कहलाता है। जिस शास्त्र, जिस पाठक व गुरु से पागम ज्ञान हुमा हो, उसके नाम के गुण को नहीं छिपाना तथा लघु शास्त्र या पल्पज्ञानी पाठक का नाम लेने से मेरा महत्व घट जायगा, इस भय से बड़े ग्रन्थ या
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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