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________________ णमोकार ग्रंथ केवलज्ञान केवलज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा प्रभाव होने से अलोकाकाश सहित सम्पूर्ण रूपी, रूपी पदार्थों का अपनी भूत, भविष्यत, वर्तमानकालिक अनन्तानन्त पर्याय सहित समस्त तीन लोक को स्वतः इन्द्रिय उद्योतादिक की सहायता बिना ही प्रत्यक्ष जानना केवलज्ञान है। यह ज्ञान परमात्म भवस्था में होता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान १६५ पांच भेदों का यह संक्षिप्त स्वरूप कहा गया । सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने का कारण 'श्रुतज्ञान है, उसका वर्णन संक्षेप में इस प्रकार है - श्रुतज्ञान विषय भेद से प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इस प्रकार से भगवान् की दिव्य ध्वनि के अनुसार श्री गणधर देव ने चार विभाग रूप वर्णन किया है। इनमें श्रात्मज्ञानोत्पति की कारणता होने से इनको वेद कहते हैं। इन चारों का स्वरूप इस प्रकार है प्रथमानुयोग - प्रथमानुयोगमस्थानं चरितं पुराणमपि पुष्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ अर्थात् जिस सम्यग्ज्ञान में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का कथन है, जिसमें एक प्रधान पुरुष की श्राश्रय कथा है तथा उसमें मुख्यतया त्रेसठ शालाका पुरुषों का अर्थात् चौबीस तीर्थंकर बारह चक्रवति, नव बलभद्र, नव नारायण, नव प्रतिनारायण इन त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र है और जो पुण्य का आश्रय करने वाला, बोधि अर्थात् रत्नत्रय समाधि अर्थात् ध्यान का निधान (खजाना ) है - ऐसे उस प्रथमानुयोगरूपी शास्त्रों के विषय को सम्यग्ज्ञान ही सम्यक् प्रकार जानता है। मनुष्य इस प्रथमानुयोग के अध्ययन, अध्यापन करने से चरित्र के श्राश्रय पुण्य पाप रूप कार्य और उसके फल को शुभ कार्यों से निवृत्त होकर शुभ कार्य में प्रवृत्त होने का प्रयत्न करता है और धर्म का सामान्य स्वरूप समझकर विशेष सुक्ष्म स्वरूप के जानने की अभिलाषा से अन्यान्य का भी अवलोकन करता है । प्रारम्भ में धर्माभिमुख करने में उपयोगी होने से इसका प्रथमानुयोग सार्थक नाम है । करणानुयोग --- लोकालोक वित्त युगपरिवृत अंतुर्गतीनांच | भावर्शमिव तथा मतिरवंति करणानुयोग चं ॥ अर्थात् उक्त प्रकार का सम्यग्ज्ञान ही लोकालोक विभाग को, युगों के प्रर्थात् काल के परिवर्तन को, चार गतियों को और लेश्या, कषाय योगादि में कर्मों की न्यूनाधिकता से उसके परिवर्तन को तथा कर्मों के बंध, उदय, सत्ता, क्षय. उपशम, क्षयोपशमादि ऐसे करणानुयोग को दर्पण सदृश जानता है । इसका प्रत्येक विषय गणित से सम्बन्ध रखता है, इसलिए इसका करणानुयोग सार्थक नाम है । चरणानुयोग गृहमेष्यनधारणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरांग म् । वरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति । अर्थात् उक्त प्रकार का सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियों के राग द्वेष की निवृत्ति पूर्वक चारित्र की उत्पत्ति वृद्धि और रक्षा के कारणभूत अंगों का वर्णन है जिसमें ऐसे चरणानुयोग शास्त्र को भली प्रकार जानता है । पाप कार्यों के त्यागने से क्रमशः श्रात्म-परिणाम उज्ज्वल होकर प्रात्मा शुद्ध भवस्था को प्राप्त हो सकता है । ऐसी धाचरण विधि का प्ररूपक होने से इसको चरणानुयोग कहते हैं ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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