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________________ णमोकार ग्रंथ श्रुतमान-श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्ध लिए हुए अन्य पदार्थ का जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । श्रुतज्ञान के भी दो भेद अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान-जैसे स्पर्शनेन्द्रिय से अन्य पदार्थ का सम्बन्ध होने पर अधिक शीतल या उष्ण होने से ये मुझे अहितकारी हैं, ऐसा जो ज्ञान है उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । वह समनस्क लीयों के मन के गाय से साफ पपौर मानरक जीवों के आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, इन संज्ञाओं के द्वारा यत्किचित प्रतिभास रूप होता है। अक्षरात्मक श्रतज्ञान-'चट' इस शब्द के दो प्रक्षरों के पठन तथा श्रवण करने से घट पदार्थ का जानना अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का विषय केवलज्ञानवत् असीम है अन्तर इतना है कि केवलशान तो विशद प्रत्यक्ष प्रौर श्रुतदान प्रविशद परोक्ष है। अवधिज्ञान-अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार पंचेन्द्रिय और मन की सहायता बिमा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मयांदा लिए हुए रूपी पदार्थ का स्पष्ट जानना अवधिज्ञान है । वह अवधि दो प्रकार का है (१) भवप्रत्यय अवधिज्ञान --जो देव, नारकी तथा छपस्थ तीर्थंकर भगवान के मुख्यतया भव के कारण उत्पन्न हो, उसे भयप्रत्ययावधिक कहते हैं । (२) क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान-पर्याप्त मनुष्य तथा संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच के सम्यग्दर्शन तथा तपगुणकरि नाभि के ऊपर शंख, पम, वन, स्वस्तिक, कलश आदि जो शुभ चिन होते हैं, उस जगह के प्रात्म-प्रदेशों में अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो ज्ञान होता है, उसे क्षयोपशम निमित्तक अवधिशान कहते हैं यह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान अनुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, बद्धमान और हीयमान इस तरह छह प्रकार का होता है। जो अवधिज्ञान जीव के साथ एक भव में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में साथ चला जाए, तथा भय से भवांतर व क्षेत्र से क्षेत्रांतर में चला जाए, उसे क्रमश: भवानुगामी, क्षेत्रानुगामी कहते हैं। भव में भवांतर में, क्षेत्र से क्षेत्रांतर में साथ न जाए, उसे क्रमशः भवानगामी और उभयानगामी कहते है। जैसा उपजे वैसा ही बना रहे उसे अवस्थित, हीनाधिक होता रहे उसे अनवस्थित, जो क्रमशः घटकर नष्ट हो जाए उसे हीयमान अवधिशान कहते हैं तथा अवविज्ञान सामान्यतः १ देशावधि, २ परमावधि और सर्वावधि भेद से तीन प्रकार का है। इसमें देशावधि सो भवप्रत्यय, और क्षयोपशमनिमित्तक दोनों रूप होता है और परमाधि व सर्वावषि ये दोनों क्षयोपशभनिमित्तक रूप ही होते हैं। मनःपर्ययज्ञाम-मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म के क्षययोपशम होने से पचेन्द्रिय और मन की सहायता बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को मर्यादा लिए हुए जो अन्य के मन में तिष्ठते हुए सविधि ज्ञान के विषय (अवधिज्ञान के देशाधि प्रादि तीन भेदों में से सर्वावधि का सबसे सूक्ष्म विषय होता है) के अनंतवे भाग सूक्ष्मरूपी पदार्थ को स्पष्ट जाने, उसे मनपर्ययज्ञान कहते हैं । इसके भी दो प्रकार हैं--- (१) चुमति मनःपर्यय- मन, वचन, काय की सरलता रूप अन्य के मन में पाए हुए पदार्ष को किसी के पूछे या बिना पूछे ही जानने को ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। (२) विपुलमति मनःपर्यय- सरलता तथा वक्ररूप मन, वचन, काय द्वारा चितित, अर्द्धपितित तथा अचिंतित और ऐसे ही कहे हुए. किए हुए, पर के मन में रहते पदार्थ को किसी के पूछे बिना पूछे ही जानना विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान है ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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