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णमोकार प्रय
देव होकर दिव्य सुख भोगते हैं । यह सब उनके उत्तम पात्र दान का फल है। अतएव जो लोग पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च गुल लाभ करेंगे । यह वात ध्यान में रखकर सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें। यही दान स्वर्ग और मोक्ष सुख का देने वाला है । भोगभुमि में सैनी तिर्यन्च नहीं होते और वे भी स्त्री पुरुष युमल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरते हैं । यह उत्कृष्ठ भोगभूमि की रचना चार कोड़ा कोड़ी सागर पर्यन्त रहती है । सदनन्तर सुखमा नाम का दूसरा काल प्रवर्तता है उसमें मध्यम भोगभूमि अर्थात हरि और रम्यक क्षेत्र के समान रचना व रीति होती है । इसमें मनुष्यों की ऊँचाई चार हजार धनुष और दो पल्य की आयु होती है । तब भी निरन्तर दो पल्य तक कल्प वृक्षों से उत्पन्न हुए सुख भोग कर आयु पूर्ण होने पर मृत्यु लाभ कर अपने शेष बचे पुण्य के अनुसार स्वर्ग में देव उत्पन्न होते हैं। इस काल में भी युगल ही पैदा होते हैं। यह मध्यम भोगभूमि की रचना तीन कोड़ा कोडी सागर पर्यन्त रहती है। तत्पश्चात् तीसरा काल जो सुखमा दुःखमा है, प्रवर्तमान होता है उसमें जघन्य भोगभूमि अर्थात् हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के समान रचना ब रीति होती है । इसमें मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई दो हजार धनुष और एक पल्य की पायु होती है। एक पल्य पर्यन्त बरावर कला वृक्ष आदि से उत्पन्न हुए विषय भोगों के सुख भोगते है। प्राय पूर्ण होने पर मृत्य लाभ कर अपने शेषदचे पूण्य के अनुसार देव पर्याय में जाते हैं पुण्यानुसार सुख भोगते हैं । यह जघन्य भोग भूमि की रचना दो कोड़ा-कोड़ी सागर पर्यन्त रहती है। इस प्रकार ४-|-३+२६ कोड़ा कोड़ी सागर पर्यन्त भोगशूमि की रचना होती है।
जब तीसरे काल में पल्य का पाठवा भाग शेष रहा तो चौदह कुलकर हुए । उनके नाम ये हैंप्रतिश्रति, सामति, क्षमंकर, क्षेमंधर, सीमकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान यशस्वान, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरदेव, प्रसेनजित पोर नाभिराय । ये अपने तीन जन्म के ज्ञाता और कर्म भूमि के व्यवहार के उपदेशक थे।
प्रथम कुलकर के शरीर की ऊँचाई अठारह सौ धनुष थी। इनके समय ज्योतिरांग जाति के कल्प वक्षों की ज्योति मंद होने के कारण चन्द्रमा पौर मूर्य का प्रादुर्भाव देखकर उनके प्रकाश से जो लोग भयभीत हुए थे उनका इन्होंने भय निवारण किया।
दूसरे कूलकर का शरीर प्रमाण तेरह सौ धनुष था। इन्होंने ज्योतिष जाति के कल्पवक्षों की ज्योति मंद होने से तारागण के विमानों का प्रादुर्भाव देखकर तारागण के प्रकाश से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया ।२।
तीसरे कुलकर का शरीर पाठ सौ धनुष था । इन्होंने सिंह, सी आदि के कर स्वाभावी होने से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया ।।
चौथे कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ पिचहत्तर धनुप था । इन्होंने अन्धकार से भयभीत हारा लोगों को दीपक प्रज्वलित कराने की शिक्षा से उनका भय निवारण किया ।।।
पाँचवें कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ पचास धनुष था। इन्होंने कल्पवृक्षों के स्वस्व की मर्यादा बांधी।५॥
छठे कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ पच्चीस धनुष था । इन्होंने अपनी-अपनी नियमित सीमा तथा शासन करना सिखलाया।६।