SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ णमोकार ग्रंथ अज्ञानवादी के भेद : नव पदार्थों को सप्तभंगों से गुणा करने पर तिरेसठ होता है। सप्तभंग स्वरूप का वर्णन - प्रथम भंग स्यात् अस्ति कहिए कथंचित् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा जीवादि द्रव्य है ।। १।। दुजा भंग स्यादनास्ति कहि कथंचित् पर द्रण पर क्षेत्र, पर काल और परभाव की अपेक्षा नहीं है ||२|| तीजा भंग स्यादस्तिनास्ति कहिए एक ही अस्तिनास्ति है इससे प्रस्ति नास्ति उभयरूप है ॥१३॥ चौथा भंग स्यादवक्तव्य कहिए वचन से अगोचर है। + अस्ति कहिए तो नास्ति का प्रभाव और नास्ति कहिए तो अस्ति का अभाव इससे अवक्तव्य है ||४|| पाँचवाँ प्रस्ति वक्तव्य कहिए स्वभाव से तो है, किन्तु वचन अगोचर है । अस्ति कहिए तो नास्ति के प्रभाव से अवक्तव्य है ॥ ५॥ छठवां भंग स्यात्नास्ति वक्तव्य कहिए जीवादि तत्वों परभाव की अपेक्षा नहीं हैं, परन्तु नास्ति ही कहिए तो अस्ति के प्रभाव से प्रवक्तव्य है || ६ || सातवां भंग अस्ति नास्ति श्रवक्तव्य कहिए जीवादि पदार्थ श्रस्ति नास्ति हैं, परन्तु कहने में अनुक्रम से आते हैं, एक साथ नहीं कहे जाते अतः अस्ति नास्ति श्रवक्तव्य है ॥७॥ विज्ञानवादी के प्रश्न को एक सदभावपक्षी कोई सत्यासत्य पक्षी और कोई अवक्तव्य पक्षी ऐसे इन चारों शून्य एक एक अंश को ग्रहण करवाकर पूर्वोक्त सरसठ भेद होते हैं। ये भी तत्व के यथार्थ ज्ञान से एक एक नय का बल लेकर वाद करते हैं ॥ ३॥ विनयवादी के भेद मन, वचन, काय और दान से माठ प्रकार के विनय को गुणा करें तो बत्तीस भेद होते हैं । आठ विनय के नाम -- माता १, पिता २, देव ३, नृप ४, जाति ५, बाल ६, वृद्ध ७, और तपस्वी ८. इन ग्राठों का मन, वचन और काय से दान सत्कार करना, इस भांति विनयवादी के बत्तीस भेद कहे हैं । भावार्थ - यह जान कि विनय करना तो जिनधर्म का मूल है, परन्तु विनयवादी के भेद को जानकर मूर्तिमात्र को देव, भेष मात्र को गुरू, पत्र तथा अक्षर मात्र को शास्त्र और जल मात्र को तीर्थ मानते हैं और स्वरूप ज्ञान से शून्य होते हैं। इस प्रकार वादियों का कथन है जिसमें ऐसे दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के पांच भेद हैं । पहला परिकर्मक १, दूसरा सूत्र २ तीसरा प्रथमानुयोग ३, धौथा पूर्व ४, और पाँचवा चूलिका ||५|| परिकर्मक के पांच भेद हैं- पहला भेद चन्द्रप्रज्ञप्ति है १, छत्तीस लाख पाँच हजार पद का है । उसमें चन्द्रमा के भोगादि का वर्णन है || १|| दूसरा भेद सूर्यप्रज्ञप्ति २, पाँच लाख तीन हजार पदों का है। उसमें सूर्य के योगादिक सम्पदा का वर्णन है ||२|| तीसरा भेद जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ॥ ३ ॥ तीन लाख पच्चीस हजार पद का है। उसमें जम्बू द्वीप का विस्तार सहित वर्णन है || ३|| चौथा भेद द्वीपोदधिप्रज्ञप्ति ४, वाचन लाख छत्तीस हजार पद का है । उसमें सम्पूर्ण द्वीप समुद्रों का वर्णन है ||४|| पाँचवा भेद व्याख्याप्रज्ञप्ति ५, चौरासी लाख छत्तीस हजार पद का है। उसमें पुद्गल द्रव्य मूर्तिक और जीवादिक पाँच समूर्तिक इन षद्रव्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन है ||५|| ऐसे समस्त परिकर्म के एक करोड़ इक्यासी लाख पाँच हजार पद हैं। पुनः दृष्टि-वादांग का दूसरे भेद सूत्र के मठासी लाख पद हैं। उनके प्रथम भेद में बंध के प्रभाव का कथन, दूजे भेद में श्रुति स्मृति, पुराण का अर्थ, श्रुति कहिए केवली को दिव्य ध्वनि, स्मृति कहिए गणधरों की वाणी, पुराण कहिए मुनियों के वचन, तीसरे भेद में नियत कहिए निश्चय का कथन और चौथे भेद में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का निरूपण ये नाना भेद सूत्र में हैं। बारहवें अंग का तीसरा भेद प्रथमानुयोग पांच हजार पद का है। इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन है। बारहवें दृष्टिवादांग का चौथा भेद पूर्व है। वह चौदह प्रकार का है। प्रथ चौदह पूर्व नाम ॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy