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________________ णमोकार ग्रंथ स्वरूप इत्यादि जिनधर्म की अमृत कथा का कथन है ।।६॥ सातवां उपासकाध्यनांग ग्यारह लाख सत्तर हजार पद का है। इसमें धावक के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन है ।।७॥ पाठवां अंतः कृशॉग तेईस लाख प्रट्टावन हजार पद का है । इसमें प्रत्येक तीर्थकर के तीर्थ में (एक तीर्थकर का तीर्थ कहते है 1) जो दश-दश भुमि चार प्रकार का तीन उस सहन करके संसार के अन्त को प्राप्त हुए अर्थात् अन्तः कृत केवली हुए हैं उसका वर्णन है । अन्तः कृत केवली कहने का भाव यह है कि जिनका केवल कल्याणक और निर्वाण कल्याणक साथ हो अर्थात् अायु का अन्त होने पर ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता है । नवमां अनतरोपपादक दशांग वानदे लाख चवालीस हजार पद का है उसमें एक एक तीर्थकर के तीर्थ में दशदश मुनि उपसर्ग जीतकर नव अनुदिश, पंच अनुत्तर को प्राप्त हुए उन का कथन है । उपसर्ग दश प्रकार का है उनका ब्योरा इस प्रकार का है तीन प्रकार मनुष्य कृत स्त्री १, पुरुष २, नपुसक ३. तीन प्रकार तिर्य चकृत स्त्री , पुरुष ५, नपुसक ६, । नपुसक देवों में नहीं होते। इससे दो प्रकार के देवकृत देव और देवांगना ८. स्वशगेर कृत ६ तथा दशवां अचेतन, पत्थरादिक अचेतन कृत उपसर्ग होता है ।। १०॥ ऐसे दम प्रकार के उपसर्ग को शुद्धात्मवादी मुनि जन ही जीतते हैं ।।६। दशवां प्रश्न व्याकरणांग निगन लाख सोलह हजार पद का है। इसमें अपेक्षिणी ।१। विक्षेपिणी २, संवेगिनी ३, और निवैदिनी ४ । ऐसे चार प्रकार की कथानों का वर्णन है ||१०|| ग्यारहवां विपांग सुत्रांग एक करोड़, चौरासी लाख पर का है। इसमें कों के विपाक अर्थात् उदय का वर्णन है ॥११॥ इन ग्यारह अंगों के सर्व पद चार करोड़ पन्द्रह लाम्ब दो हजार हैं। इति ग्यारह अंग वर्णन ॥ वारहवां मष्टिवादांग । एक सौ पाठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पांच पद का है। इस में तीन सौ तिरेसठ कुत्रादियों का कथन है। इसमें पहले क्रियावादियों के मूल भेद एक सौ अस्सी है। दूजे अक्रियावादियों के चौरासी भेद, तीसरे अज्ञान वादियों के सड़सठ भेद, चौध विनयवादियों के बनीस भेद, ऐसे समस्त भेद तीन सौ तिरेसठ हुए। अब प्रथम एक सौ अस्सी क्रियावादियों का कथन करते हैं-नियत कहिये निश्चय स्वभाव कहिये वस्तु का स्वभाव, काल कहिए समय, देव कहिये पूर्वकर्म का उदय और पौरुष कहिये उद्यम ये पाँच, स्व कहिए पाप, पर कहिए दूसरा, नित्य कहिए स्थिर, अनित्य कहिए अस्थिर, इन चारों से गुणा करने पर बीस भेद होते हैं । इन बीसों को नव पदार्थों से गुणा करने पर एक सो अस्सी होते हैं । यह क्रियावादियों के भेद हैं । ये एक एक अंश का बल ग्रहण कर वाद करने वाले हैं ॥१|| अक्रियावादियों के भेद जीवादिक सात तत्वों का स्वतः कहिए पापसे और परसे गुणा कीजिए तो चौदह भेद होते हैं। इन चौदहों को नियत, स्वभाव काल देव पौरुष इन पांचों से गुणा करने पर सत्तर भेद होते हैं । नियत, काल ये दो भेद स्वतः सप्त तत्वों से गुणा करने पर चौदह भेद हुए। पूर्वोक्त मत्तर पौर चौदह भेद मिलाने पर समस्त चौरासी भेद प्रक्रियावादी के होते हैं ।।२॥ मोक्ष के उपाय से विमुख, उदय को मुख्य मानकर पौरुष नहीं करते और एक एक स्थल का पालंबन ग्रहण करके वाद करते हैं ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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