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णमोकार ग्रंथ
और प्रमाण अध्ययन
विशेष के बीच
अक्षर होते है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति पंचमो, ज्ञातुकथा षट जान । पुनि उपासकाध्ययन, अन्तः कृतदश ठान ॥२॥ अनुसरण उपपायवश, सूत्र विपाक पिछान ।
ग्यारह प्रश्नव्याकरणजुत, ग्यारह अंग प्रमाण ॥३॥ अर्थ-याचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, समवार्याग ४, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग ५, ज्ञातृधर्मकथांग ६, उपासकाध्ययनांग ७, अन्तः कृद्दशांग ८, अनुत्तरोपपादकदशांग ६, प्रश्नव्याकरणांग १०, पौर विपाक सत्रांग११ये ग्यारह अंग हैं । अब प्रकरण वश यहाँ पर द्वादशांग तथा चौदह पूों में से किस-किस पूर्व में कितने-कितने पद हैं तथा उनमें किस-किस विषय का वर्णन है, उसे संक्षेप में लिखा जाता है। प्रथम प्राचारोग अठारह हजार पद का है । इसमें यती के धर्म का वर्णन है ।
विशेष सूचना-इस जिनवाणी की संख्या मध्यम पद से जाननी चाहिये । पद तीन प्रकार के होते हैं । अर्थपद, प्रमाण पद और प्रमाण अध्ययनपद। इनमें से शास्त्र को वेष्टन में वांधो, वह पुस्तक लाओं' इत्यादि अनियमित अक्षरों के समुदाय रूप किसी विशेष के बोध वाक्य को अर्थ पद कहते हैं । पाठ आदिक अक्षरों के समुदाय को प्रमाण पद कहते हैं। जैसे श्लोक के एक चरण में आठ अक्षर होते हैं । इसी प्रकार अन्य शब्दों के पदों में भी अक्षरों का न्यूनाधिक प्रमाण होता है, परन्तु गाथा में कहे हुए पद के चार प्रक्षरों का प्रमाण सदैव के लिए निश्चित है, इसी को मध्यम पद कहते हैं। एक मध्यम पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, माठ सौ अठासी अक्षर होते हैं। १॥ दूसरा सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पद का है। उसमें स्व समय और पर समय का विशेष वर्णन है । २। तीसरे स्थानांग के बयालिस हजार पद हैं। इसमें से एक से दस तक गिनती का व्याख्यान है जैसे एक केवलज्ञान, एक मोक्ष, एक आकाश, एक अधर्म इत्यादि और दो दर्शन ज्ञान, प्रथवा राग द्वेष, इत्यादि तीन रत्नत्रय, तीन सत्य, तीन दोष, तीन प्रकार कर्म, तीन वेद इत्यादि । चार गति, चार अनन्त चतुष्टय, चार कषाय इत्यादि । पंच महानत, पंचस्तिकाय, पंच प्रकार का ज्ञान इत्यादि प्रष्ट द्रव्य, पट्लेश्या, आदि। सप्त तत्व, सप्त व्यसन, सप्त नरक यादि । अष्ट कर्म, अष्ट मद, अष्ट गुण, अष्ट ऋद्धि, अष्टांग निमित्त ज्ञान, इत्यादि । नव पदार्थ, नवधा शील, नवधा भक्ति इत्यादि । दश प्रकार धर्म, दशधा परिग्रह, दश दिशा इत्यादि की चर्चा तीसरे स्थानांग में है ।। ३ ।। चौथा समवायांग एक लाख चौसठ हजार पद का है। इस में द्रव्यादिक की तुल्यता का वर्णन है कि कोई द्रव्य किसी से न्यून नहीं। तभी द्रव्य सत्ता लक्षण से समान हैं ॥ धर्म, अधर्म जीव और लोकाकाश प्रदेशों के समान हैं । यह तो द्रव्य की तुल्यता का वर्णन हुआ और क्षेत्र में ढाई द्वीप । प्रथम स्वर्ग का ऋजु विमान । प्रथम नरक का सीमंतक नामा बिल और सिद्धशिलाएँ पैतालिस २ लाख योजन के हैं । यह क्षेत्र समानता कही। दश कोड़ाकोड़ी सागर की एक उत्सपिणी और दस कोडाकोड़ी सागर की एक अवसर्पिणी यह काल की समानता का वर्णन हुमा । ज्ञान की अनंतता और दर्शन की अनन्तता यह भाव की सत्यता कही गयो। इस भांति समवायांग में निरूपण किया है ।४॥ पांचवां व्याख्या प्राप्ति दो लाख अट्टाईस हजार पद का है। इसमें सांसारिक विषय सुख से विरक्त शिष्य के जीव है या नहीं, वक्तव्य है अथवा भवक्तव्य है, नित्य है या मनित्य, एक हे या अनेक, इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का विस्तार पूर्वक व्याख्यान है ।५ ॥ छठा भात धर्म कांग पांच लाख छप्पन हजार पद का है। इसमें जीवादि वस्तुमों का स्वभाव, सीर्थंकरों का महात्म्य, उनकी दिव्य ध्वनि का समय तथा महात्म्य, उत्तम क्षमा प्रादि दशविध धर्म, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय धर्म का