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________________ णमोकार प्रेष अब यहाँ प्रसंगवश प्राचार्य शिष्य को कैसे कौन से काल में पौर कौन से देश काल को त्याग कर दीक्षा देते हैं सो कहते हैं :-- प्रथम मुनि धर्म के धारण करने योग्य पुरुष का लक्षण कहते हैं -मुनि धर्म का धारण करने वाला पुरुष उत्तम देश का उत्पन्न हुमा हो । उत्तम वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो, शूद्र न हो, क्योंकि जाति का असर भी कुछ न कुछ अवश्य रहता है । उत्तम कुल और उत्तम गोत्र का हो। शरीर के अंगोपांग शुद्ध हों और अन्धा, बधिर, लूला, लंगड़ा. कुबड़ा प्रादि दोषों से रहित हो। कुष्ठ, उन्माद, मृगी, मूर्छादि बड़े रोगों से रहित हो । राज्य विरुद्ध तथा लोक विरुद्ध आचरण का धारक न हो। कषायों से रहित हो अर्थात् मन्द कषायो हो । पंचेन्द्रिय के विषय भोगों में अरुचि करने वाला हो । शुभ चेष्टा वा उत्तम प्रवृति का धारक शुभाचरण पालने वाला, हास्य, कौतुहल से उपराम बुद्धि वाला, मोक्ष का इच्छुक महावैराग्य परिणामी ऐसा शिष्य संघ में कुशलता और धर्मवृद्धि का कारण दीक्षा देने योग्य होता है । ऐसे मुमुक्षु को प्राचार्य योग्य, अयोग्य समय विचार कर दीक्षा देते हैं । प्राचार्य जो देश अवसर प्राप्त होने पर मनुष्य को दीक्षा नहीं देते, उनके नाम इस प्रकार हैं। __ जहां पर प्रथम प्रहारोप अर्थात् कोई अशुभ ग्रह हो तो दीक्षा नहीं देते ॥१॥ सूर्यग्रहण, ||२|| चायण ॥ इन्द्र धनब ४।। इसका उल्टा ग्रह अर्थात वक्री ग्रह माया हो ||५|| प्राकाश मेघ के बादलों से प्रान्छादित हो रहा हो ॥६॥ तथा उसको वह महीना कष्टदायक हो ॥७॥ अधिक मास हो ॥८॥ संक्रान्ति अर्थात् उसी दिन सूर्य उस राशि से दूसरी राशि पर बदलने वाला हो ॥६॥ असंपूर्ण तिथि हो ॥१०॥ इन दश कारणों का परित्याग कर निमित्तज्ञान के वेत्ता प्राचार्य शुभ मास, शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभयोग, शुभ मुहूर्त, शुभग्रह देख शुभ लग्न में शिष्य को दीक्षा देते हैं । और स्वयं पंचाचार पालते तथा संघ के सब मूनि समूहको प्रवतति हैं ।। जिस प्रकार राजा प्रजा की कक्षलता की वद्धि तथा रक्षा करता है उसी प्रकार ये अपने संघ के प्राचार और रत्लश्यादि की रक्षा और वृद्धि करते हैं इसलिये इनको संघपति भी कहते हैं। और ये अपना शरीर भी बहुत वृद्ध तथा इन्द्रिय शिथिल होता जानकर अधिक से अधिक बारह वर्ष पहले से समाधिमरण करने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का समागम मिलाते हैं और अपने संघ का राम घटाने के लिए त्याग कर पर संघ में जाकर अपवित्र शरीर के निमित्त कुछ भी ममत्व न कर रत्नत्रय धर्म की रक्षा के लिए कायकषाय को कृश करते हुए द्वादशानुप्रेक्षा की आराधना युक्त पंचपरमेष्ठी के स्वरूप तथा प्रात्मध्यान में लवलीन हो देह सजते हैं। ॥ अथ उपाध्याय गुण प्रारम्भ ।। दोहा- चौवह पूरव में धरें, ग्यारह अंग सुजान । उपाध्याय पंचवीस गुण पढ़े पड़ावे ज्ञान ॥श अर्थ-ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का पाठीपना इन पच्चीस गुणों से युक्त उपाध्याय, जिस प्रकार अध्यापक शिष्यों को पठन पाठन के द्वारा ज्ञान की वृद्धि कराता है और स्वयं उस ज्ञान की वृद्धि के लिए पठन-पाठन करता है उसी प्रकार उपाध्याय सब संघ को अंग पूर्वादि शास्त्रों का ज्ञान कराते और स्वयं पठन-पाठन करते हैं। ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी मेरे ज्ञान की वृद्धि करें। ।। अथ ग्यारह अंग नाम ॥ बोहा- प्रयमंहि पाचारांग गिन, बूजा सूत्र कृतांग। स्वानांग तीजा सुभग, चौथा समवापांग ॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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