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नमोकार
दबाया कि वह अचेत हो गया। जब वह सचेत हुना, तब उसने उस दुःख से वैराग्य पाकर भीम को नमस्कार कर निर्जन वन में जाकर जिन-दीक्षा ले ली।
जब प्रातःकाल होने पर कीचक के नौकर ने उसे नहीं देखा, तब उन्होंने महाराज विराट से आकर कहा । उस समय राजा ने यह सोचकर कि कहों वह अपने देश में न चला गया हो, एक सेवक को उसके भाइयों के पास समाचार लाने को भेज दिया उसने जाकर उनके भाइयों से पूछा--'क्या कीचक यहाँ पाया है ?' यह सुनकर उसके भाइयों को बड़ा संदेह हुआ। वे सौ के सौ भाई उसकी खोज लगाने के लिए अपनी नगरी से चल पड़े। ग्राम, नगर, वन, उपवन आदि में देखते लोगों से पूछते हुए विराट नगर में पाए। वहाँ पूछने पर इनसे किसी मनुष्य ने कहा--'मैंने महाराज कीचक और एक मालिन को नगर के बाहर संध्या के समय अमुक मठ में प्रवेश करते हुए देखा था, परन्तु निकलते समय एक मालिन ही दिखाई दी। कीचक को नहीं देखा'
यह सुनकर उसके भाइयों को बड़ा क्रोध पाया और कहने लगे कि 'हमारे भाई कीचक को उस दुष्ट मालिन ने मार दिया है, यह हमको पूर्ण निश्चय हो गया है इसलिए अभी उस दुष्टा को मग्नि में भस्म कर परलोक वासी बना देना चाहिए।'
_ इसी विचार से वे लोग मालिन रूप द्रोपदी को पकड़ कर ले प्राये और चिता बनाकर द्रोपदी को जलाने लगे । इतने में ही उस मालिन के जलाने का समाचार किसी मनुष्य ने भीम को कह सुनाया। यह सुनते ही भीम क्रोधित होकर वहां पाया जहां चिता तैयार की जा रही थी। उसने देखा कि कीचक के भाई द्रौपदी को जलाने के लिए चिता तैयार कर उसको जलाने का यत्न कर रहे हैं। उसने सती द्रौपदी को चिता पर से उठा लिया और कीचक के भाईयों को उठा कर अग्नि में होम दिया। उनमें से एक को उसकी जिह्वा काट कर छोड़ दिया। वह जिह्वारहित हुमा नगर में जाकर राजा से अपना अभिप्राय समझाने के लिए कुछ संकेत करने लगा। तब राजा ने कर्मचारियों से कहा-देखो तो, ये मूक मनुष्य क्या कहता है ?'
उत्तर में भीम बोला-महाराज ! यह कहता है कि कीचक के दुःख से उसके सब भाई अग्नि में जलकर भस्म हो गये । इसको मैंने बचा लिया प्रतः संकेत द्वारा कहता है कि इसने मेरे प्राण बचा लिए ।
विराट ने कहा-ये ठीक कहता है।'
निदान उस मूक को इसी दुःख में अपने स्थान पर चले जाना पड़ा। उसकी कुछ सुनाई नहीं हुई । अयानंतर पांडव बारह वर्ष सुखपूर्वक विराट नगरी में व्यतीत कर राजा से विदा लेकर द्वारका पहुंचे और वहां जाकर वासुदेव से मिले। इनका दुःख दूर हुआ वहां श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा का पाणिग्रहण अर्जुन से हो गया । श्रीकृष्ण चाहते थे कि कौरव और पांडव फिर किसी तरह मिल जाएं इस प्राशय से उन्होंने उनका दूत तक बनना स्वीकार कर बहुत कुछ उद्योग किया परन्तु सब निष्फल हना। निदान कौरवों मार पांडवों की शत्रुता की बात संसार भर में हो गयी। कुरुक्षेत्र में दोनों की सेनाओं की मुठभेड़ होकर बड़ा भारी भीषण संग्राम हुआ । अन्त में कौरवों का सर्वनाश हुआ और जय लक्ष्मी ने पांडवों की दासता स्वीकार कर भूमंडल पर उनकी पताका फहरा दी।
श्रीकृष्ण पांडवों के सहायक थे। इन्होंने पांडवों को बड़ी भारी सहायता दी थी। कौरवों और पांडवों का युद्ध भारत वर्ष में प्रसिद्ध है, जो प्रायः महाभारत के नाम से स्मरण किया जाता है। उस समय श्रीकृष्ण ने प्रीतिपूर्वक पांडवों को हस्तिनापुर का राज्य दिया और तत्पश्चात् पांडव इच्छानुसार स्वतन्त्रता से राज्य करने लगे।