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________________ णमोकार प्रय देखो। पांडवों ने जुमा खेलने से कैसी-कैसी भयंकर मापदाएं और दारुण दुःख सहे उनके मतिरिक्त भी नल प्रवृति कितने ही राजानों ने इसके खेलने से दुःख भोगे तो सामान्य जनों का क्या कहना ? मौर सब व्यसनों के लिए तो द्रव्य की अवधि हो सकती है और ये सब धीरे-धीरे उसाड़ते हैं, परन्तु जुए के लिए धन की कोई सीमा नहीं क्योंकि समस्त राज्य को एक दांव पर लगाया जा सकता है । यही नहीं वस्त्राभूषण तथा स्त्री को भी दाव पर लगाकर एक क्षण भर में कंगाल बन बैठते हैं। यदि वह दैवयोग से जीत भी जाए तो जीतने पर मद्य पान, मांसभक्षण, वेश्यासेवन, परस्त्रीसेवन प्रादि निछ कर्म कर इस जुए की कृपा से इनकी सहायता पाकर और भी शीघ्र ही अधोगति को प्राप्त हो जाते हैं। (कविता) सात विसन को राजा यह याते अहित बनें सब काम, हारत चोरी परचित धारत कर पापधन कारत ताम । अथवा हनत जीव नहीं डरपे जीते सेवत खोटे धाम, पा सम पाप और नहीं जग में जाते परत नीच प्रति नाम ॥ (पवैया) प्रारति अपार कर सांच सों विचार घरै, यश सुख धन पुनि प्रभुता विनाश है। जीति के तृपत नाहि हारे ना गांठ माहि, लत है उधार देत महादुखराश है। और कौन बात तात कौन इतवार भात, नारि को नहीं सुहात मातदून वास है। जाय गति पति भाय परं अति विपति, प्राय तातें खेल चोपड़ हू महादूख पास है ॥ प्रतएव बुद्धिमानों को इस पाप व्यसन जुए तथा इसके परिवार रूप चौपड़, शतरंज, तास व मूठ आरि की शर्त लगाकर खेलने का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। ॥ इति चूतव्यसन वर्णनम् ॥ ॥अथ मासव्यसन वर्णन प्रारम्भः ॥ इसका वर्णन तीन मकार में हो चुका है तथापि सप्त व्यसनों में गणना होने के कारण यहां भी संक्षिप्त स्वरूा कहा जाता है । यह जंगम जीवों की द्रव्य हिंसा करने से उत्पन्न होता है प्राकृति, नाम और मंध से ही चित्त में घृणा उत्पन्न होती है। इसकी दुर्गन्ध से जब उल्टी हो जाती है, तब उत्तम लोग इसे कैसे ग्रहण करेंगे इसका स्पर्श तक ही महा बुरा है। जब स्त्री रक्त के बहने मात्र से निंद्य और अपवित्र गिनी जाती है, तब रक्त, वीर्य एवं मूत्र, पुरीषादि सप्त धातु, सप्त उपधातु रूप स्वभाव से ही महा अपवित्र पदार्थों के समूह से उत्पन्न हुंभा मांस भला कैसे पवित्र हो सकता है ? अर्थात कदापि नहीं और फिर मांस पिड चाहे कच्चा हो या पक्का, उसमें प्रत्येक समय अनन्त साधारण निगोद जीवों का समूह सदा उत्पन्न रहता है। उसकी कोई प्रवस्था ऐसी नहीं कि अब इसमें जीव उत्पन्न न होते हों। कहा भी है--
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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