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________________ णमोकार प्रथ ॐ ह्रीं प्रहं विविस्ताय नमः ।। २३१ ॥ प्राप एकाकी प्रयवा पवित्र होने से विविक्त हैं ।।२३।। ॐ ह्रीं अहं वोतमत्सराय नमः ।। २३२ ॥ ईर्षा द्वेष न करने से आप बीतमत्सर कहलाते हैं ॥ २३२ ॥ ___ॐ ह्रीं अह विनेयजनसावधये नमः ॥ २३३ ।। आप अपने भवतजनों के बंधु हैं इसलिए आप विनेयजनता बंधु कहलाते हैं ।। २३३ ॥ ॐ ह्रीं ग्रह विलीनाशेषकरमषाय नमः ।। २३४ ।। कर्मरूपी समस्त कालिमा रहित होने से प्राप विलीनाशेषकल्मष हैं ।। २३४ ॥ ॐ ह्रीं महं वियोगाय नमः ।। २३५ ॥ अन्य किसी वस्तु के साथ सम्बन्ध न होने से अथवा राग रहित होने से आप वियोग हैं ।। २३५॥ ॐ ह्रीं अहं योगविदे नमः ।। २३६ ।। योग के जानकार होने से आप योगवित् हैं ।। २३६ ॥ ॐ ह्रीं मह विद्वानाय नमः ॥२३७॥ महापंडित अर्थात् पूर्ण ज्ञानी होने से प्राप विद्वान हैं ॥२३७॥ ॐ ह्रीं अहं विधाताय नमः ।।२३।। धर्मरूप सृष्टि के कर्ता होने से अथवा सबके गुरु होने से पाप विधाता हैं ॥२३८।। ___ॐ ह्रीं ग्रह सुविधये नमः ॥२३६॥ आपके अनुष्ठान एवं क्रिया अत्यन्त प्रशंसनीय होने से प्राप सुविधि हैं ॥२३६।। ॐ ह्रीं श्रह सुध्ये नमः ॥२४०॥ अतिशय बुद्धिमान होने से अाप सुधी हैं ।।२४०।। ॐ ह्रीं मह क्षोतिभाजे नमः ||२४१|| पाप उत्तम शांति के धारण से शांतिभाक् हैं ॥२४॥ ॐ ह्रीं अहं पृथ्वी मूर्तये नमः ।।२४२॥ आप में पृथ्वी के समान सबको सहन करने की शक्ति होने से पृथ्वी मूर्ति हैं ।।२४२।। ॐ ह्रीं ग्रह शांतिभाजे नमः ॥२४३।। आप शान्ति को धारण करने से शांतिभाक् कहलाते हैं ।।२४३|| ॐ ह्रीं ग्रह सलिलात्मकाय नमः ॥२४४॥ जल के समान अत्यन्त निर्मल होने से तथा अन्य जीबों को कर्ममल रहित शुद्ध करने से पाप सलिलात्मक हैं ।।२४४॥ ॐ ह्रीं अर्ह वायुमूर्तये नमः ।।२४५।। पाप वायु के समान पर के सम्बन्ध में रहित होने के कारण वायुमूर्ति हैं ॥२४५।। ह्रीं अर्ह प्रसंगात्मने नमः ॥२४६।। परिग्रह रहित होने से प्राप प्रसंगात्मा हैं ॥२४६॥ ॐ ह्रीं मह वह्नि मूर्तये नमः ॥२४७॥ अग्नि के समान ऊध्र्वगमन स्वभाव होने से अथवा कर्मरूपी ईन्धन को जला देने से पाप यह्निमूति हैं ॥२४७।। ॐ ह्रीं ग्रह अधर्मणे नमः ।।२४८॥ अधर्म का नाश करने से आप अधर्मधुक कहलाते हैं ॥२४॥ ॐ ह्रीं अर्ह सुयज्वने नमः॥२४६॥ कर्मरूपी सामग्री का हवन करने से आप सुयज्वा हैं ।।२४६।। ॐ ह्रीं अहं यजमानात्मने नमः ॥२५०॥ स्वभाव भाव की प्राराधना करने से अथवा भाव पूजा के कर्ता होने से प्राप यजमानात्मा है ॥२५०।। ॐ ह्रीं अहँ सुत्वाय नमः ॥२५१॥ परमानन्दसागर में अभिषेक करने से पाप सुत्वा कहलाते हैं ।।२५१॥ 3
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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