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________________ १४ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं श्रीं सुत्रामपूजिताय नमः || २५२ ॥ इन्द्र के द्वारा पूज्य होने से श्राप सुत्राम पूजित हैं ।। २५२ ॥ ॐ ह्रीं ऋत्विजे नमः || २५३ || ध्यान रूपी अग्नि में शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने में अथवा ज्ञानरूप यज्ञ करने से श्राप प्राचार्य कहलाते हैं। इसलिए आपको ऋत्विक कहते हैं ।। २५३ ।। ॐ ह्रीं भई यज्ञपतये नमः || २५४ || यक्ष के मुख्य अधिकारी होने से श्राप यशपति हैं ।। २५४ ।। ॐ ह्रीं श्रहं यज्याय नमः ।। २५५|| सर्व पूज्य होने से आप राज्य हैं ॥ २५५॥ ॐ ह्रीं अहं पशांगाय नमः || २५६ ।। यज्ञ के साधन अर्थात् मुख्य कारण होने से प्राप यशांग है ।। २५६ ।। ॐ ह्रीं अमृताय नमः ॥ २५७ || मरण रहित होने से अथवा संसार तृष्णा को निवारण करने से आप अमृत हैं ।। २५७ ॥ ॐ ह्रीं अहं हविषे नमः || २५८ ॥ हैं ||२५८ || ॐ ह्रीं श्रीं व्योममूर्तये नमः || २५६ || श्राप श्राकाश के समान निर्मल श्रथवा केवलज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी होने से व्योममूर्ति हैं ||२५|| अमूर्तात्मने नमः || २६० ॥ रूप, रस, गंध, स्पर्श, रहित होने से आप अमूर्तात्मा ॐ ह्रीं हैं ॥ २६० ॥ श्रपने आत्मा में तल्लीन रहने से प्राप हविष कहलाते ॐ ह्रीं निर्लेपाय नमः || २६१ ॥ कर्मरूपी लेप से रहित होने से आप निर्लेप हैं ।। २६१।२ ॐ ह्रीं श्रीं निर्मलाय नमः || २६२ ॥ रागादि रहित होने से अथवा मलमूत्रादि से रहित होने से श्राप निर्मल हैं ।। २६२|| ॐ ह्रीं ग्रहं श्रचलाय नमः || २६३|| आप सर्वदा स्थित रहने से चल हैं ॥ २६३ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं सोममूर्तये नमः || २६४ || चन्द्रमा के समान प्रकाशमान और शांति होने से प्रथवा प्रत्यन्त सुशोभित होने से श्राप सोममूर्ति हैं ॥ २६४॥ ॐ ह्रीं श्रीं सुसौम्यात्मने नमः || २६५ ।। प्राप प्रतिशय सौम्य होने से सुसौम्यात्मा हैं ||२६|| ॐ ह्रीं सूर्यमूर्तये नमः || २६६ || आप सूर्य के समान अतिशय कांतियुक्त होने से सूर्यमूर्ति हैं ॥ २६६॥ ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रभाय नमः ॥ २६७ ॥ आप प्रतिशय प्रभावशाली होने से अथवा केवलज्ञान रूपी तेज से सुशोभित होने से महाप्रभ हैं ॥ २३७॥ ॐ ह्रीं मंत्रविदे नमः || २६८ || आप मंत्र के जानने वाले होने से मंत्रविद् हैं ॥ २६८ ॥ ॐ ह्रीं श्रह मंत्रकृते नमः ॥ २६६ ॥ प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोग रूप मन्त्रों के प्रथवा जप करने योग्य मन्त्रों के कर्त्ता होने से प्राप मन्त्रकृत् हैं ॥ २६६ ॥ ॐ ह्रीं प्रर्ह मंत्रिणे नमः || २७० || अथवा मुख्य होने से आप मन्त्री हैं || २७० || ॐ ह्रीं यह मंत्रमूर्तये नमः || २७१|| आत्मा का विचार करने से अथवा लोक की रक्षा करने मंत्रस्वरूप होने से आप मन्त्रमूर्ति हैं ।। २७१ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अनन्तगाय नमः ॥ २७२ ॥ अनन्त ज्ञानी होने से श्राप अनंता हैं । २७२ ॥ से भाप स्वतन्त्र हैं ॥ २७३॥ ॐ ह्रीं अहं स्वतंत्राय नमः ॥ २७३॥ स्वाधीन होने से मंयदा आत्मा हो मापका सिद्धान्त होने
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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