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________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं मह वहिष्ठाय नमः ॥२०६|| अनन्त गुणों के धारक होने तथा अनेक स्वरूप हो जाने से भाप वहिष्ठ है ।।२०६॥ ॐ ह्रीं महं श्रेष्ठाय नमः ॥२१०॥ प्रशंसनीय होने से प्राप श्रेष्ठ है ।।२१।। ॐ ॐ हं अनिष्ठाय नमः ॥२११॥ अतिशय सूक्ष्म अर्थात् केवलज्ञान गोचर होने से प्राप अनिष्ठ कहलाते हैं ॥२११।। ॐ ह्रीं प्रहं गरिष्ठगिरे नमः ॥२१२।। मापकी वाणी पूज्य होने से पाप गरिष्ठगी कहलाते हैं ।।२१२।। ॐ ह्रीं प्रहं विश्वभृवाय नमः ॥२१३॥ चतुर्गतिरूप संसार को नष्ट करने के कारण श्राप विश्वभृद कहलाते हैं ॥२१३।। ॐ ह्रीं पहं विश्वश्रषे नमः ।।२१४॥ विधि विधान के कर्ता होने से भापविषवसुद हैं ॥२१४॥ ॐ ह्रीं मह विश्वाय नम: 1॥२१५॥ तीन लोक के स्वामी होने से पाप विश्वेट कहलाते हैं ॥२१५॥ ॐ ह्रीं प्रहं विश्व के नमः ॥२१६॥ जगत् की रक्षा करने वाले होने से प्राप विश्वभुत् कहलाते हैं ॥२१६॥ ॐ ह्रीं अर्ह विश्वनायकाय नमः ।।२१७।। सबके स्वामी होने से पाप विश्वनायक है ।।२१।। ॐ ह्रीं पहं विश्वासिने नमः ॥२१८।। समस्त प्राणियों के विश्वास योग्य होने से मथवा केवलशान के कारण सब जगह निवास करने से पाप विश्वासी कहलाते हैं ॥२१८।। ॐ ह्रीं पहं विश्वरूपात्मने नमः ॥२१॥ प्रापका प्रात्मा अनन्त स्वरूप है, इसलिए माप विश्वरूपात्मक कहलाते हैं ।।२१६॥ ॐ ह्रीं ग्रह विश्वजिते नमः ॥२२०॥ संसार को जीतने से पाप विश्वजिन कहलाते हैं ॥२२०॥ ॐ ह्रीं पहँ विजिनान्तकाय नमः ॥२२१॥ काल को जीतने के कारण आप विजितान्तक कहलाते हैं ॥२२१॥ ॐ ह्रीं ग्रह विभवाय नमः ।।२२२॥ आपको किसी प्रकार का मनो विकार नहीं है इसलिए प्राप विभव कहलाते हैं ॥२२२॥ ॐ ह्रीं मह विभयाय नमः ॥२२३॥ भय रहित होने से माप विभय कहलाते है ।।२२३॥ ॐ ह्रीं मह वीराय नमः ।।२२४॥ लक्ष्मी के स्वामी होने से तथा अतिशय बलवान होने से आपको वीर कहते हैं ॥२२४॥ ॐ ह्रीं मह विशोकाय नमः ॥२२५ शोक रहित होने से पाप विशोक कहलाते है ।।२२५॥ *ह्रीं मह विजराय नमः ॥२२६|| जरा रहित होने से पाप विजर है ॥२२६।। ॐ ह्रीं ग्रह जरणाम नमः ॥२२७।। नवीम न होने से अर्थात् प्रनादि कालीन होने से पाप जरत वा पर है।।२२७॥ ही पहं विरागाय नमः ॥२२८।। राग रहित होने से पाप विराग है ।।२२।। ॐ ह्रीं मई विताय नमः ॥२२६।। समस्त विषयों से घिरस्त होने से भापको विरत कहते हैं ॥२२॥ ही पह प्रसंगाय नमः ॥२३०।। पर वस्तु का सम्बन्ध न रखने से पाप प्रसंग है ॥२३०॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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