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________________ णमोकार प्रेष ॐ ह्रीं पहं सुश्रुते नमः ।।१८७॥ पाप भक्तों की प्रार्थना को अच्छी तरह से सुनते हैं इसलिए सुश्रुत कहलाते हैं ॥१७॥ ॐ ह्रीं मह सुवाचे नमः ॥१८८11 प्रापकी वाणी सप्तभंग स्वस्थ होने प्रथम हितोपदेश देने से पाप सुवाक कहलाते हैं ॥१८८|| ॐ ह्रीं ग्रह सूर्य नमः ।।१८।। पाप सबके गुरु होने से सूरि है ।।१६।। ___ॐ ह्रीं मह बहुश्रुताय नमः ।।१६०॥ माप शास्त्रों के पारगामी होने से बहुश्रुत कहलाते हैं ॥१९०| ॐ ह्रीं पहं विश्रुताय नमः ।।१६१।। प्राप जगत् प्रसिद्ध होने से पथवा बास्त्रों से भी पापका यथार्थ स्वरूप जाना नहीं जाता इसलिये पाप विश्रुत है ।।१६१॥ ॐ ह्रीं पहं विश्वतः पादाय नमः १९२।। पापकी केवलज्ञान रूपी किरणें सब पोर फैली हुई हैं इसलिये मापको विश्वतः पाद कहते हैं ।।११२॥ ॐ ह्रीं प्रहं विश्वशीर्षाय नमः ।।१९३॥ लोक के शिखर पर विराजमान होने से पाप विश्वशीर्ष है ।।१६।। ॐ ह्रीं मह शुचित्रवाय नमः ।।१६४॥ आपका शान अत्यन्त निदोष है इसलिये पापको शुकिसबा कहते हैं ॥१४॥ ॐ ह्रीं महं सहस्रशीर्षाय नमः ॥११॥ अनन्त सुखी होने से भाप सहस्रशीर्ष हैं ॥१९॥ ॐ ह्रीं मह क्षेत्रशाय नमः ॥१९६॥ प्रारमा के स्वरूप को जानने से अथवा लोकालोक को जानने से भाप क्षत्रश हैं ।। १६६॥ ॐ ह्रीं पह सहस्राक्षाय नमः ।। १९७|| पाप अनन्तदर्शी होने से सहलाक्ष है॥७॥ ॐ ह्रीं महं सहनपदे नमः ॥१६८॥ अनन्त वीर्य को धारण करने से आप सहस्रपाद हैं॥१९८।। ॐ ह्रीं प्रहं भूतभव्य भवदपत्रे नमः ॥१९६|| भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों के स्वामी होने से आप भूतभव्यभवदपत्रा हैं ||१६६।। ॐ ह्रीं महं विश्वविद्यामहेश्वराय नमः ॥२००॥ पाप समस्त विद्यामों के लषा केवलशान के स्वामी होने ये विश्वविद्यामहेश्वर कहे जाते हैं ॥२०॥ ____ॐ ह्रीं मह स्थविष्ठाय नमः ॥२०१॥ सद्गुणों के पूर्ण होने से अथवा आपके प्रदेशों में समस्त जीवों के प्रकाश देने की शक्ति होने से प्रापको स्थविष्ट कहते हैं ।।२०१॥ ॐ ह्रीं पह स्थविराय नमः ॥२०२।। पाप प्रादि, मन्त रहित होने से भत्पन्त वृद्ध अथवा ज्ञान से वृक्ष है इसलिए स्थविर कहलाते हैं ॥२०२।। ॐ ह्रीं पह ज्येष्ठाय नमः ॥२०३।। मुरुप होने से पाप ज्येष्ठ हैं ।।२०३।। * ह्रीं पहं पृष्ठाय नमः ।।२०४१। सबके मनगण्य होने से पाप पृष्ठ है ॥२०॥ ॐ ह्रीं महं प्रेष्ठाय नमः ॥२०५।। प्रत्यन्त प्रिय होने से पाप प्रेष्ठ है ।२०।। ॐहीं पहं वरिष्ठधिये नमः ॥२०६॥ अतिशय बुद्धि को धारण करने वाले होने से माप वरिष्ठधी कहलाते हैं ।।२०६॥ ॐ ह्रीं ग्रह स्थेष्ठाय नम: ॥२०७॥ प्राप प्रपन्त स्थिर पर्थात् अविनाशी होने से स्प्ष्ठ कहलाते है ॥२०॥ ॐ ह्रीं ग्रहं गरिष्ठाय नमः ॥२०६।। अत्यन्त गुरु होने पाप गरिष्ठ हैं ॥२०८।।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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