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________________ णमोकार प्रय ॐ ह्रीं महं भावाय नमः ॥१६६।। प्राप अपने स्वभाव में समा लीन हैं इसलिये पाप भाव हैं ।।१६६।। ऊँ ही मह भवान्तकाय नमः ॥१६॥ संसार भ्रमण का पाप अत करने वाले हैं, इसलिए भवान्तक को जाते हैं ||१६७।। ॐ ह्रीं ग्रह हिरण्यगर्भाय नमः ।।१६८।। आपके गर्भावतार के समय सुवर्ण की दृष्टि हुई थी इसलिये पापको हिरण्यगर्भ कहते हैं ॥१६॥ __ॐ ह्रीं प्रहं श्रीगर्भाय नमः ।। १६६| मापके गर्भावतारके समय लक्ष्मी ने भी सेवा की थी अथवा मापके प्रग-भंग में स्फुरायमान लक्ष्मी शोभायमान हैं, इसलिये आप को श्रीगर्भ कहते हैं ।।१६।। ॐ ह्रीं प्रहं प्रभूतविभवे नमः ।। १७०।। मनन्त विभूति के स्वामी होने से भापको प्रभूत विभव कहते हैं ।।१७०।। ॐ ह्रीं मह अभवाय नमः ।।१७।। पाप जन्म रहित होने से प्रभव कहे जाते हैं ॥१७१।। ॐ ह्रीं मह स्वयंप्रभुवे नमः ॥१७२।। प्राप अपने पापही समर्थ होने से स्वयंप्रभु कहलाते हैं ॥१७२॥ ॐ ह्रीं प्रहं प्रभूतात्मने नमः ॥१७३।। केवलज्ञान के द्वारा प्रापका आत्मा व्याप्त होने से पाप प्रभूतात्मा कहलाते हैं ११७३| ॐ ह्रीं पहं जगत्प्रभवे नमः ।।१७४॥ तीनों लोकों के स्वामी होने से पाप जगतप्रभु कहलाते हैं ।।१७४।। ॐ ह्रीं मह भूतनाथाय नमः ॥१७५५॥ समस्त जीवों के स्वामी होने से प्राप भूतनाथ हैं ।।१७५|| ॐ ह्रीं ग्रह सर्वादये नमः ।। १७६।। सबसे प्रथम अर्थात् श्रेष्ठ होने से प्राप सर्वादि है ॥१७६॥ ॐ ह्रीं अर्ह सर्वदृशे नमः ।।१७७॥ माप समस्त लोकालोक को देख सकते हैं इसलिये सबंदक हैं ॥१७७।। ॐ ह्रीं महं सर्वाय नमः ॥१७८|| प्राप हितोपदेश कर सभी का कल्याण करने से सर्व है ।।१७॥ ॐ ह्रीं महं सर्वशाय नमः ॥१७६।। माप पूर्ण सम्यमत्व को धारण करने से सर्वज्ञान हैं ।।१६।। केही मह सर्व दर्शनाय नमः ।।१०।। मापका दर्शनपूर्ण प्रवस्था को प्राप्त हुमा है इसलिए माप सर्व दर्शन कहलाते हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं महं सर्वात्मने नमः ॥१८१|| पाप सबके प्रिय होने से सर्वारमा है ॥११॥ *हीं प्रहं सर्वलोकेशाय नमः ।१८२॥ प्राप तीनों लोकों के समस्त जीवों के स्वामी होने से सर्वलोकेश हैं ।।१८।। ॐ ह्रीं महं सर्वविदे नमः ।।१८३|| माप समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से सर्वविद् है ।।१८।। ॐ ह्रीं ग्रह सर्व लोकजिते नमः ॥१८४|| पाप अनन्तवीर्य होने के कारण समस्त लोक को जीतने वाले हैं इसलिए सर्वलोकजित कहलाते हैं ।।१८४॥ *लों पहं सुगतये नमः ॥१८५|| भापकी पंचम मोक्षगति प्रतिशय सुन्दर होने से मथवा पापका ज्ञान प्रशंसनीय होने से पाप सुगति कहलाते हैं ।।१८५।। ॐ ह्रीं अहँ सुश्रुतायनमः ॥१८६॥ पाप अत्यन्त प्रसिद्ध होने से अथवा उत्तम शास्त्रज्ञान को धारण करने से पाप सुश्रुत हैं ॥१६॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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