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________________ ३७६ णमोकार मंथ का लोप कर दिया यथार्थ में वे पुत्र कुल के कलंक ही हैं। इसलिए हे स्वामी ! यहाँ से चतुरंग सेना लेकर अपने देश को चलिए और सानन्द चिन्ता मिटाकर स्वराज्य भोगिए।" ऐसे वचन अपर मुख से सुनकर श्रीपाल ने कहा- "हे प्रिये ? तुमने जो कहा वह ठीक हैं परन्तु क्षत्रिय लोग कभी किसी के सामने हाय नहीं नीचा करते अर्थात याचना नहीं करते सो प्रथम तो मांगना ही बुरा है और कदाचित यह भी कोई करे तो ऐसा कौन कायर व निर्लोभी होगा जो दूसरों को राज्य देकर पाप पराश्रित जीवन व्यतीत करे । संसार में कनक और कामिनी को कोई भी खुदो-खुशी किसी को नहीं सौंप देता है और यदि ऐसा हो भी तो मेरा पराक्रम किस तरह प्रगट होगा? अपने बाहुबल से ही प्राप्त हुआ राज्य सुख का दाता होता है दूसरी बात यह है कि जहां तक अपनी शक्ति से काम नहीं लिया वहाँ तक राज्य किस अाधार पर चल सकता है ? तीसरे शक्ति को काम में न लाने से कायरता भी बढ़ती जाती है। फिर समय पर शत्रु से रक्षा करना कठिन हो जाता है। विद्या अभ्यास कारिणी ही होता है इसलिए पुरुष को सदैव सावधान रहना ही उचित है इसीलिए हे वरनार ! मैं विदेश में जाकर निज वाहुबल से राज्यादि वैभव प्राप्त करूंगा। तुम आनन्द से अपनी सास की सेवा माता के समान करना और नित्य प्रति जिन देव के दर्शन, स्तबनादि षट कर्मों से सावधान रहना। तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करना। मैं शीघ्र ही आकर मिलगा।" पति के ये वचन यद्यपि मैंनासुन्दरी के लिए दुखदायक थे परन्तु जब उसको यह विश्वास हो गया कि 'अब स्वामी नहीं मानेंगे वे अवश्य ही विदेश जायेंगे इसलिए अब इनके चलते समय प्रबरोध करना उचित नहीं है-ऐसा समझ कर वह धीमे स्वर से बोली- "हे स्वामिन ! आपको आज्ञा मुझे शिरोधार्य है परन्तु ये तो बतलाइए कि अब इस अवला को पुन: आपके दर्शन कब होंगे जिसके सहारे व पाशा पर चित्त को स्थित रखा जाय ?" तब श्रीपाल ने कहा-"प्रिये ! बिल्कुल अधीर मत हो । चित्त में धर्य रख मैं बारह वर्ष पूर्ण होते ही इसी अष्टमी के दिन अवश्य प्रा मिलूंगा। इसमें किंचित मात्र भी अन्तर न समभता इस प्रकार श्रीपाल जी पतिपरायण मैनासुन्दरी को सन्तोष देकर अपनी माता के पास पहुंचे और नमस्कार कर माता से प्रार्थना की और माता से अपने मन का समस्त वृतान्त निवेदन करके विदेश गमन के लिए आज्ञा देने की प्रार्थना की। माता कुदप्रभा पुत्र का शुभ अभिप्राय जानकर कहने लगी- हे पुत्र ! अब बहुत दिनों में आकर तो तुम्हारे वियोग जनित हृदय को दाह को शान्त किया था क्या अब मुझे फिर वहीं वियोग जनित दुःख देखना पड़ेगा इसलिए हे पुत्र जाने की आज्ञा देते हुए मेरे चित्त को बहुत दुःख होता है परन्तु मैं अब रोक भी नहीं सकती हूं इसलिए अब तुम जाते ही हो तो जानो। श्री जिनेन्द्र देव और देव, गुरु, धर्म के प्रभाव से तुम्हारी यात्रा सफल हो।" इस प्रकार श्रीपाल जी ने माता से शुभाशीदि और आज्ञा ले, उसी रात्रि को पिछले पहर में सर्व उपस्थित जनों को यथायोग्य प्रणाम पंचपरमेष्ठी का उच्चारण करते हुए, हर्षित हो, उत्साह सहित नगर से प्रयाण किया। श्रीपाल जी वहाँ से चलते-चलते वत्सनगर में पाए। उन्होंने वहां वत्स नगर के चंरक वन में एक वृक्ष के नीचे तत्र निवासी वस्त्राभूषणों से अलंकृत व क्षीण शरीर एक विद्याधर को क्लेश युक्त व मंत्र जपते हुए देखा । परन्तु इतना क्लेश उठाने पर भी मंत्र सिद्ध नहीं होता था, इससे वह उदास चित्त हो रहा है'-ऐसा देखकर श्रीपाल ने उसके निकट जाकर पूछा तो उसने अपना समस्त वृतान्त कहकर उससे विद्यासाधन करने के लिए निवेदन किया । तब श्रीपाल उसके बारंबार कहने और प्राग्रह करने से शुद्धता पूर्वक निश्चल आसन लगाकर मन, वचन, काय की स्थिरता से शुद्ध भाव पूर्वक मंत्र जपने के लिए बैठ गए सो एकाग्रचित्त से
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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