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________________ नमोकार म १६१ के पालन करने से मुनि धर्म धारण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। यद्यपि प्रथमानुयाग सम्बन्धी पुराण तथा चारित्रादि नषों में सामान्य रूप से साधारण सी अतिशा लेने वाले गृहस्य को भी धायक शब्द से स्मरण किया है तथापि चरणानुयोग सम्बन्धी उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) ग्रंथों में बहुधा पाक्षिकनैष्टिक और साधक ऐसे तीन प्रकार के ही श्रावक कहे हैं। क्योंकि श्रावक के अष्टमूलगुण और सप्त व्यसनों का त्याग इन तीनों में हीनाधिक्यता से पाया जाता है। सागारधर्मामृत प्रादि ग्रयों में स्पष्ट कहा है कि मद्य त्यागादि श्रायकों के पाठ मूलगुण और अहिंसा प्रादि बारह अणुव्रत उत्तर गुण हैं। इन्हीं बारह व्रतों के विशेष भेद श्रावक को तरेपन क्रिया है। इन तरेपन क्रियानों की पूर्णता भी वारह प्रतों के साथ-साथ पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारवी प्रतिमा में हो जाती है। ॥ श्रावक की तरेपन क्रियाओं के नाम । गुण वय तव सम पडिमा, वाणं जलगालणं च प्रणयमियं । बसंणणाण चरित', किरिया तेवण सावया भणिया ॥ अर्थ-अष्टमूलगुण, द्वादश वत, द्वादशतप, समता, एकादश प्रतिमा, चतुर्विधदान, जलगालन, अंथक (ध्यालू), दर्शन, ज्ञान और चारित्र इस प्रकार श्रावक की तरेपन क्रियाएँ हैं । अब पक्षचर्या, साधन के द्वारा जो श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक ब साधक श्रावक ऐसे तीन भेद कहे हैं उनका पृथक-पृथक वर्णन किया जाता है। ॥ अथ पाक्षिक श्रावक वर्णन प्रारम्भ ।। सम्यग्दष्टे: सातिवार, मूलाणुक्तपालकः। पर्चाविनिरतस्त्वगु, पदं कांक्षीहपाक्षिकः ॥ अर्थात्-सम्यग्दृष्टि प्रतीचार सहित मूलगुण और अणुव्रत का पालन करने वाला जिन भगवान की पूजा प्रादि में अनुरागो तथा प्रागे-मागे अधिक व्रतों के धारण करने की इच्छा रखने वाला पाक्षिक श्रावक कहा जाता है । प्राशय यह है कि जिसे वीतराग सर्वज्ञ देव के अनुलंध्य शासन द्वारा मात्म कल्याण का मार्ग तथा यथार्थ धर्म का स्वरूप ज्ञात हो जाने से एक देश हिंसा के त्याग करने रूप श्रावक्र धर्म के ग्रहण करने का पक्ष है। प्रथवा जिसने उस पर आचरण करना प्रारम्भ कर दिया है पर उस धर्म का निर्वाह जिससे यथेष्ट नहीं होता ऐसे चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि प्रारब्ध देश संयमी को पाक्षिक श्रावक कहते हैं। प्रारब्ध देश संयमी कहने का अभिप्राय यह कि जिसने देश संयम को पालन करने का प्रारम्भ स्वीकार किया है उसको नैगम नय की अपेक्षा से देश संयमी कहते हैं । इनके सप्त व्यसन का त्याग तथा अष्ट मूलगुण धारण सातिचार होते हैं । यद्यपि ये निरतिधार पालन का प्रयत्न करते हैं तथापि अप्रत्याख्यानावरण कषाय की चौकड़ो के उदय से विवश प्रतीचार लगते हैं । अब यहां शुद्ध सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक के अहिंसा धर्म की रक्षा के निमित्त मध्य विरति आदि आठ मूलगुण और सप्त व्यसन के त्याग का वर्णन किया जाता है। पाठ मूल गुण॥ जो जीव गृहास्थाश्रम में रहकर जिनेन्द्र भगवान की पाशा का पालन करता हुआ देश संयम के धारण करने की उत्कंठा रखता है ऐसे गृहस्थ को भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा को त्याग करने के लिए मद्य, मांस, मधु इन तीन मकार तथा बड़, पीपल, ऊमर (गूलर) कठूमर और पाकर इन पाँच प्रकार के क्षीर वृक्ष के फलों का अवश्य त्याग कर देना चाहिये । इन ही के त्याग करने को आठ मूलगुण कहते हैं। इन माठ मूलगुणों को अन्य भाचार्यों ने दूसरे प्रकार से भी लिखा है।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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