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१७.
णमोकार ग्रंथ
जैसा कि श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा है
मधमास मधुत्यागः सहाणुव्रतपञ्चकम् ।
प्रष्टोमूलगुणानाहगंहिणां श्रमणोसमः ॥ अर्थ-मद्य, माँस और मधु के त्याग सहित पांचों अहिंसा अणुव्रतों का पालन करना गृहस्थियों के पाठ मूलगुण कहे गये हैं । ऐसा मुनियों में उत्तम गणधर आदि ने कहा है। इस प्रकार श्री समन्तभद्राचार्या ने पंच उदम्बरों की जगह हिंसादि पंच पापों का एक देश त्याग करना कहा है । तथा भगवज्जिनसेनाचार्य ने श्री समन्तभद्राचार्य के कहे हुए अष्ट मूलगुणों में से मधु के बदले जुए का त्याग कहा है। थी आदिपुराण में कहा गया है--
आर्या छन्द हिंसा सत्यमस्तेयाद, प्रब्रह्मपरिग्रहाच्यवादर भेदात् ।
चूतामासान्मधाद्विरति, गहिणोऽष्टसंयमीमूलगुणाः ॥ हिंसा, झुठ, चोरी, प्रब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का स्थूल रीति से अर्थात् एक देश त्याग करना तथा जुया, मद्य, मांस का त्याग करना ये श्रावकों के प्रष्ट मूलगुण होते हैं।
सागरधर्मामृत तथा अन्य ग्रथों में श्रावक के प्रष्ट मूलगुण दूसरे प्रकार से भी कहे हैं। वैसे कहा गया है
मद्य फल मधुनिशासन, पंच फलीविरति पंच काप्तनुती।
जीवदया जलगालनमिति, छ पचिवष्टमूलगुणाः ॥ अर्थ-मद्य, मांस, मधु इन तीन मकार का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, पांच उदम्बर फलों का त्याग, नित्य त्रिकाल देव प्रार्थना करना, दया करने योग्य प्राणियों पर दया करना और जल छान कर पीना अर्थात् काम में लाना इस प्रकार पाठ मूलगुण कहे हैं । तथा और भी कहा है--
प्राप्तपंच नुतिर्जीक, दया सलिलगालनम् । त्रिमयादि निशाहारो; उदम्पराणांच वर्जनम् ।। अष्टोमूलगुणानेतान्, केबिवाहुर्मुनीश्वराः ।
तत्पालेनभवत्येष, मूलगुणप्रताग्वितः ॥ पर्थ-देव बंदन, जीवों की दया पालना, जल छानना, मद्य, मांस, मदिरा का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग तथा पांच उदम्बर फल का त्याग ये भी पाठ मूलगुण हैं । इन सब पूर्वोक्त कई प्रकार में प्राचार्यों के द्वारा भिन्न कथित मूल गुणों पर जब सामान्यतः विचार किया जाता है तो प्रायः सभी प्राचार्यों का अभिप्राय, अभक्ष्य, अन्याय और परिणामों की निर्दयता को छुड़ाकर महिसा यत पालन करने के लिये धर्म में लगाने का सबका, एकसा विदित होता है अतएव पाक्षिक को अहिंसा पालन करने के लिए प्रष्ट मूलगुणों को यावज्जीवन धारण करना चाहिए और इनके साथ ही मद्य, मांस, मधु आदि जैसे अनुपसेव्य और हिंसामय होने से नवनीत अर्थात् मक्खन के सेवन करने से, रात्रि भोजन करने और बिना छने पानी पीने में भी बड़ा पाप बंध होता है और जीवहिंसा का पाप बंध लगता है, मांस खाने का दोष लगता है इसलिये इनका भी पाक्षिक को अवश्य त्याग करना चाहिये। इन सब मभिप्रायों को पीछे कहे हुए रात्रि भोजन त्याग, त्रिकाल बंदना आदि मप्ट गुणों में मूल अन्तर्भूत हो जाने के कारण उन्हीं के अनुसार मब यहां पर वर्णन किया जाता है । जैसे