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________________ णमोकार प्रय १५५ तुमने मेरा बहुत उपकार किया है, इसलिये मैं तुम्हारा वहुत कृतज्ञ हूँ। यद्यपि उसका प्रतिफल दिया नहीं जा सकता तथापि तुम को जो रुचिकर हो सो मैं देने को तैयार हूं। उत्तर में बलि नाम के मन्त्री ने कहा--- महाराज ! जब आपको हम पर कृपा है तो हमको सब कुछ मिल चुका। इस पर भी प्राग्रह है तो हम उसे अस्वीकार भी नहीं कर सकते। अभी हमें कुछ प्रावश्शाता नहीं है। जब समय होगा तब श्राप से प्रार्थना करेंगे। इसी समय प्रकपनाचार्य अनेक देशों में विहार करते-करते हस्तिनापुरके उपवन में आकर ठहरे। सब लोग उनके प्रागमन का समाचार सुन कर हर्ष पूर्व वंदना करने को गये। जब उनके माने का समाचार राज-मंत्रियों ने सुना तो उनको उसी समय अपने अपमान का स्मरण हो पाया और परस्पर विचारने लगे कि देखो ! हमें इन्हीं दुष्टों के द्वारा कितना दुख उठाना पड़ा था अतएव इनसे बदला चुकाने के लिए कोई यत्न करना आवश्यक है पर राजा इनका परम भक्त है वह अपने होते हुए इन का अनिष्ट कैसे होने देगा। इतने में बलि मन्त्री बोल उठा-इसकी माप चिन्ता न करे । सिंहबल को पकड़कर लाने का अपना पुरस्कार राजा से पाना बाकी है। अब हमें उस पुरस्कार के रूप में सात दिन का राज्य ले लेना चाहिये फिर जैसा हम करेंगे वैसा ही होगा। यह युक्ति सबको सर्वोत्तम जान पड़ी । बलि मंत्री उसी समय राजा के पास पहुँचा और बहुत विनय के साथ बोला-महाराज ! आप पर हमारा एक पुरस्कार शेप है कृपया अब उसे देकर हमारा उपकार हाजिए। राजा इनके अन्तरंग कपट को न जाकर उनके ऋण से उऋण होने के लिए बोला - अच्छा ! वलि बोला-महाराज! यदि आप वास्तव में ही हमारी इच्छा पूर्ति चाहते हैं तो आप हमें सात दिवस के लिए अपना राज्य प्रदान कीजिये। राजा सुनते ही अवाक रह गया। उसे किसी बड़े भारी अनर्थ की प्रागंका हुई। पर उसे वचनबद्ध होने के कारण स्वराज्य देना ही पड़ा। राज्य के प्राप्त होते ही उन्होंने परमानन्दित होकर मुनियों के मध्य में उनके प्राणों के नाश के लिए यज्ञ-मंडप की रचना प्रारम्भ की। उसके चारों और काष्ठ रखा गया। सहस्त्रों पशु एकत्र किये गये और यज्ञ प्रारम्भ हुआ। वेदविद् वेदध्वनि से यज्ञ मंडप को जाने लगे | बेचारे निरपराध पशुओं की आहुतियां दी जाने लगीं। थोड़ी ही देर में महादुर्गन्धित धूम्र से प्राकाश परिपूर्ण हो गया उससे सारे मुनिसंघ पर भयंकर उपसर्ग हुआ। पर जैन साधु का यही मार्ग है कि आये हुये कष्टों को धीरतापूर्वक सहन करें। उन परमशांत मुनियों ने मेरुवत प्रबल होकर एकाग्रचित्त से परमात्मा का ध्यान करना प्रारम्भ किया । अपने कमों का फल जान रागोषरहित साम्यभावपूर्वक सहन करने लगे। मिथिला नगरी में स्थित श्रुतसागर मुनि को निमित्त ज्ञान से यह वृत्तांत विदित हुमा । उनके मुख से बहुत खेद के साथ ये वचन निकले ---हाय-हाय ! इस समय मुनियों पर बहुत उपसर्ग हो रहा है। उस समय वहाँ पर स्थित पुष्पदन्त नामक क्ष ल्लक पूछने लगे प्रभो ! यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है? उत्तर में श्रुतसागर मुनि बोले- हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। जक संरक्षक अकम्पनाचार्य हैं । उस सारे संघ पर बलि नाम के मन्त्री द्वारा यह उपसर्ग हो रहा है।' क्षल्लक ने फिर पूछा 'प्रभो ! कोई ऐसा उपाय भी है जिससे यह उपसर्ग दूर हो ।' मुनि ने कहा-'हो, एक उपाय है। श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गयी है वे अपनी ऋद्धि के बल से उपसर्ग दूर कर सकते हैं।'
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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