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________________ १५४ णमोकार प्रय करने के लिए वे चारों अर्द्धरात्रि के समय नगर से बाहर निकले 1 मार्ग में उनको शास्त्रार्थ होने के स्थान पर श्रुतसागर मुनि कायोत्सर्ग ध्यान करते हुए मिले। पहले उन्होंने अपना मानभंग करने वाले को ही परलोक पहुंचा देना चाहा उन्होंने मुनि का मस्तक छेदन करने को अपना-अपना खड्ग म्यान से निकाला और उनका काम-तमाम करने के लिए उन्होंने एक साथ उन पर वार करना चाहा कि इतने में ही मुनि के पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से पुरदेवी ने उपस्थित होकर उन चारों राजमन्त्रियों को तलवार हाथ में उठाये हुए पापाण के स्तम्भ के समान कर दिया अर्थात् उन्हें खड्ग उठाए हुए ज्यों का त्यों स्थिर कर दिया। प्रातः काल होते ही सूर्य की किरणों की तरह सारे नगर में मस्त्रियों के इस दुष्ट कर्म का वृतान्त फैल गया। नगर के सब मनुष्य और राजा भी देखने को आये । सबने उन्हें एक स्वर से धिक्कारा राजा ने भी उन्हें धिक्कार कर कहा-'पापियों ! जब तुमने मेरे सम्मुख इन निर्दोष और जीव-मात्र का उपकार करने वाले मुनियों की निंदा की थी, तब मैं तुम्हारे विश्वास पर निर्भर रहकर यह समझा था कि सम्भव है मुनि लोग ऐसे ही हों। पर आज मुझे तुम्हारी नीचता का ज्ञान हुआ । तुम इन्हीं निर्दोष साधुओं की हत्या करने को प्राये थे पापियो ! तुम्हारा मुंह देखना अच्छा नहीं । तुम्हारे इस घोर कर्म का दण्ड तो यही होना चाहिये, जिसके लिए तुम यहां आये थे, पर पापियों ! तुम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए हो और तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियां मेरे यहां मन्त्री पद पर प्रतिष्ठा पा चुकी है। इस कारण तुम सबको प्राणांत करने का दण्ड न देकर अपने नौकरों को प्राशा देता हूं कि वे तुम्हें गधों पर बैठाकर मेरे देश की सीमा से बाहर कर दें। राजा की प्राज्ञा का उसी समय पालन हुआ । चारों मन्त्री उसो समय निकाल दिये गये । सध है पापियों की ऐसी दशा होना उचित ही है । धर्म के ऐसे प्रभाव को देखकर लोगों के पानन्द का ठिकाना न रहा । उन्होंने हर्षित होकर जय-जय ध्वनि के मारे आकाश-पाताल एक कर दिया । मुनि संघ का उपद्रव टला । सब के स्थिर चित्त हुए। प्रकम्पनाचार्य भी उज्जैनी से विहार कर गये। हस्तिनापुर नाम का एक शहर है उसके राजा महापण और उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती उसके पय और विष्ण' नाम के दो पत्रए । एक दिन राज संसार की दशा पर विचार कर रहे थे। उसकी अनित्यता और निस्सारता देखकर उन्हें वहुंत वैराग्य हुमा। उनको संसार दुखमय दिखाई देने लगा। वे उसी समय अपने बड़े पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में चले गये और श्र तसागर मुनिराज के पास दोनों ने दीक्षा ग्रहण कर ली। विष्णु कुमार बालपन से ही संसार से विरक्त थे, इसलिए पिता के रोकने पर भी वे दीक्षित हो गये। विष्णुकुमार मुनि बनकर घोर तपश्चर्या करने लगे । कुछ दिनों पश्चात् तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गयी। पिता के दीक्षित होने पर हस्तिनापुर का राज्य पपराज करने लगे। उन्हें सब सुख प्राप्त होने पर भी एक बात का बड़ा दुःख था । बह यह कि कुम्भपुर का राजा सिंहबल के अधिकार में एक बड़ा भारी सुदृढ़ दुर्ग (किला) था इसलिये वह अचानक पाकर पमराज के राज्य में उपद्रव फैलाकर अपने दुर्ग में जा छिपता था । इसलिए पपराज उसका कुछ उपाय नहीं कर सकने के कारण बहुत चिन्तातुर रहता था । इसी समय श्री वर्मा के चारों मन्त्री उज्जन यनी से निकलकर कुछ दिनों पश्चात् हस्तिनापुर की ओर प्रा निकले । उन्हें राजा के इस गुप्त दुःख का भेद लग गया इसलिये वे राजा से मिले और उनको इस दुःख से मुक्त करने का वचन देकर कुछ सेना लेकर सिंहबल पर जा चढ़े और अपनी बुद्धिमानी से किले को तोड़ सिंहबल को बांध कर पधराप के सम्मुख लाकर उपस्थित कर दिया । पपराज ने प्रसन्न होकर उनको मंत्रीपद प्रदान किया और कहा कि
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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