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________________ णमोकार प्रेम नगर निवासी अकम्पनाचार्य के प्रागमन का समाचार सुनकर प्रष्टद्रव्य ले भक्ति पूर्वक प्राचार्य की बन्दना के निमित्त जाने लगे। प्राज एकाएक लोगों के प्रानन्द की धूमधाम देखकर महल पर बैठे हुए श्रीवर्मा ने अपने मंत्रियों से पूछा-ये सब लोग प्राण ऐसे सजधज कर कहाँ जा रहे हैं ? उत्तर में मन्त्रियों ने कहा -महाराज ! सुना जाता है कि अपने नगर में जैन साधु पाये हुए हैं। ये सब उनको पूजने के लिये जाते हैं। ___ राजा ने प्रसन्नता के कहा -'तब तो उनके दर्शन के लिये हमको भी चलना चाहिये वे महापुरुष होंगे। यह विचार कर रामा भी मन्त्रियों को साथ लेकर प्राचार्य महाराज के दर्शन करने गये। उन्हें प्रारमलीन ध्यान में देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने क्रम से एक-एक मुनि को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया सब मुनि अपने प्राचार्य की प्राज्ञा के अनुसार मान रहे। किसी ने भी उनकी धर्मा भदौ । राजा पाचार्य की वंदना कर वापस चल विए । लौटते समय मन्त्रियों ने राजा से कहा-'महाराज ! देखा, साधुनों को। बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते । सब नितांत मूर्ख हैं। यही तो कारण है कि सब मौन बैठे हुये हैं।' इस प्रकार परमात मुनिराजों की निन्दा करते हुए ये मलिनहुयी मन्त्री राजा के साथ वापिस पा रहे थे। कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गये जो कि नगर से पाहार करके वन की मोर जा रहे थे। मुनि को देखकर इन पापियों ने उनकी हंसी की। वे बोले--महाराज ! देखिये, यह एक बैल पौर पेट भर कर पला पा रहा है। मुनि ने मन्त्रियों के निन्दा वषनों को मुन लिया । सुनकर भी उनका कर्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, परन्तु वे शान्त न रह सके । कारण कि वे भोजन के लिए नगर में चले गये थे इसलिए उन्हें अपने प्राचार्य महाराज कीमाशा मालूम न थी। मुनि ने यह सोचकर, कि इनको अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है, मैं इसे चूर्ण करूगा, कहा-'तुम व्यर्थ क्यों किसी को निन्दा करते हो ? यदि तुम में कुछ विद्याबल है तो मझसे शास्त्रार्थ करो। फिर तमको ज्ञात हो जायेगा कि बैस कौन है।' भला ये भी तो राजा के मन्त्री थे और उनके हृदय में कटुता भरी हुई थी, फिर ये कैसे एक प्रकिं चन्य साधु के वचनों को सह सकते थे। मुनि से उन्होंने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। प्रभिमान में प्राकर उस समय उन्होंने कह तो दिया पर शास्त्रार्य हुमा तब उनको भली-भांति ज्ञात हो गया कि शास्त्रार्थ करना बच्चों का सा खेल नहीं है। एक ही मुनि ने अपने स्वादाद के बल से बात की बात में चारों मन्त्रियों को परास्त कर दिया। सच है एक ही सूर्य समस्त संसार के घोर अन्धकार को नाश करने में समर्थ होता है। श्रुतसागर मुनि ने विजय लाभ कर अपने प्राचार्य के पास जाकर मार्ग की सब घटना ज्यों की त्यों कह सुनाई । प्राचार्य बोले--तुमने बहुत बुरा किया जो उनसे शास्त्रार्थ किया । तुमने अपने हाथों से सारे संघ का घात किया। संध की मब कुशल नहीं है। प्रब जो हुआ सो हुमा । अब यदि सुम सारे संघ की जीवन रक्षा चाहते हो तो पीछे जाम्रो पौरजहाँ तुम्हारा राजमन्त्रियों के साथ शास्त्रार्थ हुमा था, वहीं कायोत्सर्गस्थित होकर ध्यान करो। अपने प्राचार्य की प्रामा को सुनकर श्रुतसागर मुनिराज परिणामों में किंपित मात्र भी विकलता न लाकर संघ रक्षा के लिए निशंक हो उसी समय वहां से चल दिये । शास्त्रा के स्थान पर पाकर वे मेरुवनिश्चल होकर भयंपूर्वक कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे। शास्त्रार्थ में मुनि से पराजित धारों मन्त्री अपने हृदय में बहुत लज्जित हुए । अपने मान-भंग का बदला चुकाने का विचार कर मुनि का प्राणांत
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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