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________________ ममोकार अंप क्षुल्लक पुष्पदन्त जी महाराज काम मात्र भी किसम्म न कर उसी समय विष्णुकुमार मुनिराज के पास पहुंचे और उनको सब वृतांत कह सुनाया। विष्णुकुमार मुनि को अपने विक्रया ऋद्धि प्राप्त होने की खबर न थी । जब उनको पुष्पदन्त के द्वारा मालूम हुआ तब उन्होंने परीक्षार्थ अपना हाथ फैलाया हाय फैलाते ही उनका हाथ बहुत दूर तक चला गया । तब उन्हें विश्वास हुमा । वे उसी समय हस्तिनापुर प्राये और अपने भाई से बोले-भाई ! पाप किस घोर निन्द्रा में प्रचेत हो रहे हैं। पपने राज्य में तुमने ऐसा घोर अनर्थ क्यों होने दिया ? परमशांत मूर्ति, किसी से राग द्वेष न रखने वाले मुनियों पर ऐसा अत्याचार ! और वह भी तुम जैसे धर्मात्माओं के राज्य में ! भाई, साधुओं का सताना ठीक नहीं। कहीं उनको किचित भी क्रोध आ जाए तो तेरे समस्त राज्य को भस्म कर दें। अतएव जब तक तुम पर आपत्ति पाए, उससे पहले हो तुम उसका उपाय करो । अर्थात इस घोर उपसर्ग की शांति करवा दो।' उत्तर में पधराज विनीत होकर बोले -"मुनिराज ! मैं क्या करू ? मैं वचनबद्ध होकर इनको सांत दिवस के लिए राज्य प्रदान करने के कारण बिल्कुल विवश हूं। मुझे क्या मालूम था कि ये ऐसा घोर उपद्रव करेंगे । अब मेरा उसमें तर्क करना सूर्य को दीपक दिखाना है अब तो पाप ही बिलम्ब न करके शीघ्र ही किसी उपाय से मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए, आप सब प्रकार से समर्थ हैं।" तव विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से वामन् ब्राह्मण का वेष बनाया और बड़ी मधुर ध्वनि से वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए बलि के यज्ञ मंडप में पहुंचे। उनके सुन्दर स्वरूप और मधुर वेदोच्चारण को सुनकर बलि बहुत प्रसन्न हुए मोर कहने लगे-"महाराज! मापने पधार कर मेरे यश की अपूर्व शोभा बढ़ा दी । मैं बहुत प्रसन्न हुम्ना । आपको जो इच्छा हो, सो मांगिए, इस समय मैं सब कुछ देने को तैयार हूँ। विष्णुकुमार बोले-"मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। जैसी भी स्थिति हो, मुझे तो उसो में संतोष है । मुझे किसी पदार्थ की आवश्यकता नहीं, पर जब पापका इतना पाग्रह है तो मैं प्रापको अप्रसन्न भी नहीं करना चाहता। मुझे केवल तीन पग पृथ्वी की आवश्यकता है। यदि पाप मुझे प्रदान करेंगे तो उसमें झोपड़ी बनाकर स्थान की निराकुलता से वेदाध्यनादि में अपना समय सुख से व्यतीत कर सकूँगा । इस समय मुझको किसी और पदार्थ की इच्छा नहीं। विष्णुकुमार को यह तुच्छ याचना सुनकर बलि ने कहा कि "प्रापने तो कुछ भी नहीं मांगा। यदि मेरे वैभव और शक्ति के अनुसार माँगते तो मुझको सन्तोष होता। अब भी माप अपनी इच्छानुसार मांग सकते हैं 1 मैं वही देने को तत्पर हूँ।" विष्णकुमार बोले-"मुझे अधिक की इच्छा नहीं है। जो कुछ मैंने मांगा, मेरे लिए बहुत है। यदि आपको देना ही है तो और बहुत-से ब्राह्मण मौजूद है उनको दे दीजिए।" बलि ने कहा-'अस्तु ! जैसी आपकी इच्छा । पाप तीन पग पृथ्वी नाप लीजिए 1" ऐसा कह कर जल से विष्णुकुमार के प्रति संकल्प छोड़ दिया। संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पहला पांव मेरु पर्वत पर रसा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, अब तीसरा पांव रखने की जगह नहीं रही, उसे वे कहां रखें? उनके इस कार्य से समस्त पृथ्वी कांपने लगी। पर्वत चलायमान हो गये। समुद्रों ने मर्यादा तोड़ दी। देवों व ग्रहों के समूह मारे पाश्चर्य के भौंचक्के से रह गए। वे सब विष्णुकुमार के पास पाये और बलि को बांधकर बोले-"प्रभो ! भमा को जिए । यह सब दुष्कर्म इसी पापी का है । यह पापके सम्मुख उपस्थित है।" बलि ने मुनिराज के घरणों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा मांगी और अपने कृतकर्म पर बहुत पश्चाताप किया। विष्णुकुमार मुनि द्वारा उपद्रव दूर करने से सबको शाम्सि हुई पौर चारों मन्त्री
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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