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णमोकार प्रेम
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तथा प्रजा के सब लोग भक्तिपूर्वक श्रकम्पनाचार्य को बंदना को गये। राजा और मन्त्रियों ने उनके चरणों में अपना मस्तक रखकर अपने अदाय की माना की और उसी दिन से मिध्यात्व मत का याग कर अहिंसामय जिन धर्म के उपासक बने । जिस प्रकार जिन भगवान के परम भक्त विष्णुकुमार ने धर्मप्रेम के वश हो मुनियों का उपसर्ग दूर कर वात्सल्य अंग का पालन किया और पश्चात् ध्यानाग्नि द्वारा कर्मकाण्ठ को भस्म कर शिवपुर पधारे। उसी प्रकार भव्य पुरुषों को भी अपने और पर के हित के लिए समय-समय पर दूसरों का कष्ट निवारण कर वात्सल्य अंग का पालन करना चाहिए ।
॥ इति वात्सल्याने विष्णुकुमारमुनेः कथा समाप्ता ॥
॥ अथ प्रभावनाऽङ्ग खकुमारमुनेः कथा प्रारम्भः ॥
परभय के अज्ञानरूपी अंधकार को जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिन शासन का सर्व साधारण में महत्व प्रकट करना और अपनी श्रात्मा को रत्नत्रय के तेज से उद्योत रूप करना अर्थात् तप विद्या, ऋद्धि सिद्धि आदि का प्रतिशय प्रकट करके जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाना प्रभावना नाम का पाठवा अंग है। सम्यग्दर्शन के आठवें प्रभावना श्रंग का पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले वज्रकुमार मुनि की कथा इस प्रकार है
इस भरत क्षेत्र में एक हस्तिनापुर नगर है। जिस समय का यह उपाख्यान है, उस समय हस्तिनापुर के राजा बल थे। वे धर्मात्मा और राजनीति के अच्छे वेत्ता थे। उनके मन्त्री का नाम गरुड था । उसके एक पुत्र था जिसका नाम सोमदत या । वह भी शास्त्रविद् मौर बहुत सुन्दर था ।
एक दिन सोमदत अपने मामा के यहां गया जो कि महिच्छत्रपुर में रहता था उसने अपने मामा से विनयपूर्वक कहा - मामा जी ! यहां राजा से मिलने की मेरी तीव्र उत्कंठा है। कृपा कर आप मेरी उनसे मुलाकात करवा दीजिये ।
सुभूति ने अभिमान में पाकर सोमदत्त की मुलाकात राजा से नहीं करवाई। सोमदत्त को मामा की यह बात बहुत खटकी। अन्त में वह स्वयं ही दुर्मुख महाराज के पास गया और मामा का अभिमान नष्ट करने के लिए राजा को अपने पांडित्य और प्रतिभाशालिनी बुद्धि का परिचय करवा कर स्वयं भी उनका राज्यमंत्री बन गया ठीक भी है, सबको अपनी ही शक्ति सुख देने बाली होती है । सुभूति ने सपने भानजे का पांडित्य देखकर प्रति प्रसन्न हो उससे अपनी यशदत्ता नाम की पुत्री का विवाह कर दिया । दोनों सुख से रहने लगे ।
कुछ समय पश्चात यज्ञदत्ता गर्भवती हो गई। समय चातुर्मास का था। यशवत्ता को दोहद उत्पन्न हुआ और उसे ग्राम खाने की प्रबल इच्छा हुई। ग्रामों का समय न होने पर भी सोमदत्त ग्राम ढूंढने को मन में पहुंचा। वहां एक उपवन में एक प्राम्रवृक्ष के नीचे एक परम योगीराज महात्मा बैठे हुए ये। उस वृक्ष में फल लगे हुए थे। फलों को देखकर उसने विचारा कि यह मुनिराज का प्रभाव है नहीं तो असमय में मात्र कहाँ ? वह बहुत प्रसन्न हुमा भौर बहुत से फल तोड़कर अपनी प्रिया के पास पहुंचा दिये और स्वयं मुनिराज को नमस्कार कर उनके निकट बैठ निवेदन करने लगा - महाराज ! संसार में सार क्या है ? इस बात को आपके मुख से सुनने की प्रति उत्कंठा है। कृपा कर कहिए।
मुनि बोले - हे भव्य ! संसार में सार श्रात्मा को कुगतियों से बचाकर सुख देने वाला एक धर्म है । उसके दो भेद हैं- एक मुनिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म । मुनियों का धर्म पंच महाव्रत, पंच समिति तीन गुप्ति, दशधर्म, रत्नत्रय द्वादशतप तथा पंचेन्द्रियदमन और शेष सप्तगुणों प्रादि का पालन है और श्रेष्ठ है। श्रावक मष्ट मूलगुण तथा उत्तर गुणों का पालन करना भादि है। मुनिधर्म का पालन सर्व