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________________ पमोकार प्रेम दिखत, देशवत प्रादिवत, सप्तशील तथा अहिंसा प्रादि पंचाणुव्रतों को धारण न करने वाले के शुभ-अशुभ भाव और व्यवहार के अनुसार चारों गतियों का प्रास्रव होता है और सरल स्वभाव पारम्भ गरिहवाहित मनात माहित होने पर भी वायु का प्रारूव होता है। जैसे-भोग भुमि में उत्पन्न होने वाले स्वर्ग ही जाते हैं और सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल नप ये भी देव प्रायु के पासव के कारण हैं । सराग संयम (राग सहित संयम) संयमागंयम (वस हिमा के त्याग संयम और स्थावर हिंसा के प्रत्यागरूप संयम) से प्रर्थात सम्यकत्व सहित प्रणवत ग्रादि द्वादमा बों के पालन करने से स्वर्गीय देव प्रायु का प्रास्रव होता है और अकाम निर्जरा अर्थात परवश भुख. 'यास ताइन, मारन, दुर्वचन सहना, दीर्घकाल पर्यत रोग आदि कष्ट भोगना और उसी अवस्था में मन्द कयाय रूप परिणाम रखना तथा प्रज्ञान तप अर्थात आत्मज्ञान रहित, भावना को शुद्धता में न पहुंच कर लप करना इनसे भवन्त्रिक देवनायु का अथवा स्वर्ग में नीच देव प्रायु का प्राव होता है 1 जो गीत सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके नियम से भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देव प्रायु यजित कल्पवासी देव प्राय का ही पासव होता है। नाम कर्म के प्रास्त्रव के कारण ___ मन, वचन, काय की कुटिलता अथवा मिथ्या सम्वाद के परिणाम, अशुभ नाम के प्राव के कारण हैं जैसे झूठी शपथ खाना, मद करना, दूसरों को कुरूप अथवा बुरे अंगोपांग वाला देखकर नकल चिढ़ाना तथा देखकर प्रसन्न होना इत्यादि तथा इससे विपरीत मन, वचन, काय को सरलता, विसंवाद के परिणाम का अभाव, शुभ नाम कर्म के मानव का कारण है जैसे धर्मात्मा पुरुषों को देखकर प्रसन्न होना, दूसरे को रूपवान तथा सुन्दर अंगोपांग सहित देखकर द्वेष भाव न करना, प्रमाद न करना इत्यादि और षोडश कारण भावना के धारण करने से तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति का प्रास्रव होता है। षोडश कारण भावना: (१) पच्चीस दोष (शंका कांक्षा प्रादि पाठ दोप, पाठ मद, छ: अनायतन और तीन मूढ़ता) रहित निरतिचार सम्यकत्व धारण करना दर्शन विशुद्धि भावना है । (२) दर्शन, ज्ञान, चरित्र में तथा दर्शन ज्ञान, चरित्र के धारकों तथा देव, शास्त्र गुरु, और धर्म में प्रत्यक्ष रूप से निरभिमानी होकर सविनय प्रणाम करना, प्रादर सत्कार और उच्चासन देना विनय सम्पन्नता है। (३) अहिंसा आदि अणुव्रत और दिग्विरत प्रादि सप्तशीलों का निरतिचार पालन करना शीलनतेष्वतीचार भावना है। (४) सदैव ज्ञान में उपयोग लगाना प्रभीक्षण ज्ञानोपयोग भावना है। (५) संसार के दुखों से डरते रहना संवेग भावना है। (६) शक्ति समान दान देना शक्तितस्त्याग है। (७) शक्ति के अनुसार तप करना तप भावना है । (८) मुनियों का उपसर्ग मिटाना साधु समाधि है। (8) रोगी मुनियों की सेवा करना वयावृत्य है । (१०) अरहन्त भगवान की भक्ति करना और उनके गुणों का चिन्तवन करना पहंदभक्ति है। (११) स्वय पंचाचार पालन करने वाले तथा मुनि समूह को पालन करवाने वाले संघाधिपति माचार्य के गुणों में अनुशासन करना- आचार्य भक्ति है।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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