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________________ णमोकार (१) दीन दु:खी की हंसी तथा वृथा प्रलाप करने से हास्य का प्रास्त्रव होता है। (२) योग्य काम को नहीं रोककर दीन दुःखी की बाधा दूर करने से रति का आस्रव होता है। (३) दुष्ट क्रिया में उत्साह करने तथा कुसंगति से अति का पासव होता है। (४) स्वयं रंज के करने से तथा दूसरों के कराने से तथा दूसरे को शोकयुक्त देखकर प्रसन्न होने से शोक प्रास्त्रव होता है। (५) आप भययुक्त रहने, दूसरे को भय कराने भययुक्त देखकर निर्दयी होकर हर्षित होने से भय का आस्रव होता है। (६) पात्मज्ञानी, शरीर संस्कार रहित तपस्वियों की निन्दा करने से तथा उनके शरीर को देखकर घृणा उत्पन्न करने से जुगुप्सा का पारख व होता है । (७) काम की अनि तीनता से पर स्त्री का रागपूर्वक प्रादर करने तया स्त्रियों के समान हाव भाव, आलिंगन आदि करने से स्त्रीवेद का प्राव होता है। (८) रत्री सेवन में अल्प राग करने अर्थात् अपनी ही स्त्री में सन्तोष रखने से तथा बार-बार संस्कार जो गंध पुष्पमालादि आभरण से अनादर करने में निष्कपट रहने से पुरुषभेद का प्रास्रव होता है । (8) चार कषायों को तीव्रता से गुह्य न्द्रिय के छेदन करने से, स्त्री पुरुष के काम सेवन के अंगों को छोड़कर अनंग सेवन करने से, तथा ब्रह्मचारियों को बत से चलायमान करने से, महावतियों को बत से डिगाने से नपुसकवेद का प्रायव होता है। अथ आयु कर्म के आसव के विशेष कारण : बहुत प्रारम्भ करना और परिग्रह में बहुत ममत्व करना नरकायु के प्रास्रव के कारण हैं अर्थात् जो जीव पृथ्वी, वस्त्र, प्राभूषण आदि अपने उपकारक पदार्थों का बहुत संग्रह करने की तीव्र इच्छा अन्याय, चोरी, मायाचार असत्य भाषण प्रादि जिस उपाय से प्राप्त वे हों चाहें दूसरे का सर्वस्व जाता रहे हमें तो लाभ हो जाये ऐसे सोचने वाले मनुष्यों के अवश्य नरकायु का प्राव होता है। दुष्ट विचारों का करने वाला दुराग्राही, निर्दयी, मद्य, मांस के सेवन में लंपटो अनंतानुवन्धी कषायों सहित हिंसक, र परिणामी, कृत्य, प्रकृत्य, का विचार न करने वाला, बहुत परिग्रह और प्रारम्भ करने बाला इत्यादि कृष्ण लेश्या के धारक तथा रौद्र ध्यानी मनुष्यों को भी नरकायु का ही प्रास्त्र व कहा है। बहुत मायाचार करना तिर्यंच आयु के प्रास्त्रव का कारण है। अन्य के ठगने के निमित्त कुद्धिलता करना, माया और उसका प्राचरण करने वाला मायाचारी कहलाता है। शोक, भय, मत्सरता, ईया, पर निन्दा करने में तत्पर, सदा अपनी प्रसंशा करने वाला, अहंकाररूप ग्रह से घिरा हुमा, दूसरे के यश का नाश करने वाला, इत्यादि कापोत लेश्या के धारण करने वाला तथा चेतन अथवा प्रचेतन, प्रिय बस्तु के वियोग होने पर शोक करना अनिष्ट चेतन व प्रचेतन पदार्थ के संयोग होने से चित्त कुलषित रखना, योगी होने पर उपाय को न करने से सदैव चिन्ता में मग्न रहना, और मरण पश्चात पागामी भोगों-उपभोगों की प्राप्ति में चित्त की इच्छा बनाए रखना, ऐसे प्रात्त ध्यानी मनुष्य भी तिर्यच पायु के पास्रव करने वाले होते हैं। थोड़ा पारम्भ, थोड़ा परिग्रह, कोमल परिणाम और सरल स्वभाव से मनुष्य प्रायु का पासव होता है सपा सबको समान देखने वाला हितकारी प्रिय, मिष्टभाषण, दान, शूर, दयालु, सत्कर्मों में निपुण विनयवान, दान, पूजा, सज्जन पुरुषों का प्रेमी, निष्कपट श्रादि शुभ भाव, शुभ व्यवहार से प्राणी मनुष्य पायु का पालन करते हैं।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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