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________________ णमोकार ग्रंथ प्रकृतियों में कम पड़ता है और जब अशुभ योग होता है तब पाप प्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अधिक और पुण्य प्रकृतियों में कम पड़ता है। प्रथ असाता वेदनीय कर्म के कारण:(१) पीड़ा रूप परिणाम दुःख है । (२) अपने उपकारक द्रव्य के वियोग होने पर परिणाम मलिन करना, चिंता करना, खेदरूप होना सो शोक है। (३.) निद्य कार्यजनित अपनी अपकीर्ति सुनकर पश्चाताप करना ताप है । (४) ताप होने के कारण प्रश्रुपात सहित विलाप करना, रुदन करना आक्रन्दत है । (५) आयु, वल इन्द्रियादि प्राणों का वियोग करना वध है।। (६) अश्रुपात सहित ऐसा विलाप करना कि जिससे सुनने वाले के चित में दया, उत्पन्न करने से असाता वेदनीय कर्म का प्रास्त्रव होता है। प्रय प्रसाता वेरनीय कर्म के मुख्य कारणःभूत अर्थात् सामान्य प्राणी और वृत्ति अर्थात् अहिंसादि ब्रतों के धारण करने वाले धाबकादि की पर पीड़ा देखकर ऐसे परिणाम होना मानों यह दुःख हम को ही हो रहे हैं, उनको दत्त चित्त होकर दूर करने का प्रयत्न करना भूतवत्यनुकम्पा ही अपने और पर के उपकार के लिए प्रौषधि माहारादि चार प्रकार के पदार्थों का देना दान है। दृष्टकर्मों के नाश करने में राग सहित संयम को तथा धर्मानुराग सहित संयम अणुबत ग्रहण करने को सराग संयम कहते हैं। अपने अभिप्राय रहित पराधीनता से यथा रागादि के भोगोपभोग का अवरोध होना अकाम निर्जरा और तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप से अनभिज, मिथ्या दृष्टियों का अज्ञान पूर्वक तप करना, मन, वचन, काय के योगों का शुभ रहना, क्रोध का प्रभाव कर क्षमा भाव करना, लोभ का निराकरण कर उत्तम शौच धारण करना--इन छ: प्रकार के भावों से साता वेदनीय कर्म का प्रास्त्रव होता है । वर्शन मोहनीय प्रास्त्रव के विशेष कारण (१) चार घातिया कर्म रहित, अनन्त चतुष्ट्य संयुक्त केवली भगवान के क्षुधा, तृषा, प्राहार निहार आदि असम्भव दोषों का कहना केवली का प्रवर्णवाद है। (२) आप्तोक्त अहिंसा धर्मोपदेशी शास्त्र में मद्य, मांस मधु तथा रात्रि-भोजन आदि का ग्रहण कहा है इत्यादि दोष लगाना शास्त्र का प्रवर्णवाद है। (३) परिग्रह वजित निम्रन्थ दिगम्बर मुनियों के संघ को निर्लज्ज आदि दोष लगाना मुनि संघ का प्रवर्णवाद है। (४) हिंसा रहित दयामयि जैन धर्म के सेवन करने वाले परभव में नीच गति को प्राप्त होते हैं इत्यादि दोष लगाना धर्म का प्रवर्णवाद है। (५) चार प्रकार के देवों को मांस भक्षी, सुरापानी तथा सप्त धातुमय मानुषी शरीर से काम सेवन करने वाला बताना देवावर्णवाद है। उपर्युक्त इन भावों से दर्शन मोहनीय कर्म का पात्रक होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के कारण कषायों के उदय होने से तीन परिणाम होना और इसी कारण वचन भी कठोर निकालना शरीर से दुष्टाचरण करना इनसे चरित्र मोहनीय के कषाय वेदनीय फर्म का प्रास्रव इस भांति जानना चाहिए।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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