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णमोकार मंच
(१) मन की सत्यरूप प्रवृत्ति सत्य मनोयोग है । (२) मन की प्रसत्यरूप प्रवृत्ति असत्य मनोयोग है। (३) मन को सत्यासत्य मिश्ररूप प्रवृत्ति उभय मनोयोग है (४) मन को असत्य-सत्य के विकल्प रहित प्रवृत्ति अनुभव मनोयोग है। (५) वचन की सत्यरूप प्रवृत्ति सत्यवचन योग है। (E) वचन की असत्यरूप प्रवृत्ति असत्यवचन योग है। (७) वचन की सत्यासत्य मिथरूप प्रवृत्ति मिश्र वचन योग है। (८) वचन की सत्य-असत्य के विकल्प रहित प्रवृत्ति अनुभव वधन योग है (6) प्रौदारिक शरीर की प्रवृत्ति प्रौदारिक काय योग है। (१०) प्रौदारिक मिथ काय योग प्रवृत्ति प्रोदारिक मिश्र काय योग है। (११) वैक्रियिक शरीर पर प्रवृत्ति कि कामो है। (२) इंजियिक मिश्र काययोग की प्रवृत्ति बैंक्रियक मिश्र काययोग है । (१३) पाहारक शरीर की प्रवृत्ति आहार काययोग है। (१४) आहारक मिश्र काययोग की प्रवृत्ति प्राहारक मिश्र काययोग है । (१५) कार्माण शरीर की प्रवृत्ति कार्माण काययोग है।
जब मन, वचन, काय केभावती कषाय रूप होते हैं तब पायास्त्रव होता है और जब मंद कषाय रूप होते हैं तब पुण्यासव होता है । कषाय सहित जीव के स्थिति लिए हुए संसार का कारण रूप जो प्रास्त्रव होता है इसे सोपरायिक प्रास्त्र कहते हैं और जब कषाय रहित पूर्ववद्ध कर्मानूसार योगों की क्रिया से स्थिति रहित आस्त्रव होता है उसे ईपिकि प्रास्त्रव कहते हैं। साँपरायिक पासव में प्रकृति बंध, प्रदेश बंध स्थिति बंध और अनुभाग बंध प्रादि चारों प्रकार का बंध होता है ये प्रास्त्रव समस्त संसारी जीबों के होता है। ईपिथिक मास्त्रव में केवल प्रकृति बंध और प्रदेश बंध ऐसे दो ही प्रकार का बंध होता है। ये प्रास्त्रव उपशांत कषाय, क्षीण कषाय तथा सयोग केवली नामक गुणस्थान बालों के होता है और प्रयोग केयली नामक चोदहवें गुणस्थान में मन, वचन, काय के योगों का प्रभाव होने से प्रास्त्रव का प्रभाव है ये समान्यप्रास्त्रव के भेद हैं।
अब ज्ञानावरणादि माठ कर्मों के प्रास्त्रव होने के विशेष-२ कारण कहते हैं ।
{१) यदि कोई धर्मात्मा मोक्ष मार्ग के कारण भूत तत्व ज्ञान को कथनी कर रहा हो परन्तु उसका श्रवण कर ईर्ष्या भाव से न सराहना तथा चुप हो जाना, इस प्रकार के भाव को प्रदोष कहते हैं।
२) शास्त्र ज्ञाता जानकर कोई तत्वार्थ धर्म का स्वरूप पूछे तो उस विषय को जानते हुए भी "मैं इस विषय को नहीं जानता" ऐसा कह कर उसको न बताना निह्नव भाव हैं।
(३) यह पढ़कर मेरे समान विद्वान हो जाएगा । इस ईष्या से किसी को न पढ़ाना मात्सर्य भाव है।
१४) किसी के विद्याभ्यास में विघ्न कर देना पाठशाला पुस्तकादि का विच्छेद कर देना प्रथवा जिस कार्य से विद्या की वृद्धि होती हो उसमें विध्न कर देना अंतराय है।
(५). पर प्रकाशित ज्ञान को रोक देना आसादन तथा आच्छादन भाव है। (६) प्रशस्त ज्ञान को दूषण लगा देना उपघात है।
यदि ये छ: कारण के विषय में हों तो शानावरण कर्मों का और दर्शन के विषय में हों तो दर्शनावरण कर्मों का पास्त्रव होता है । यद्यपि मास्त्रव प्रत्येक समय प्रायु कर्म के अतिरिक्त सातों को का होता है तथापि स्थिति बंध और अनुभाग बंध की अपेक्षा से ये विशेष कारण कहे गए हैं । अर्थात ऐसे - भावों से इन-इन शानावरणादि प्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अधिक-अधिक पड़ते हैं और शेष प्रकृसियों में कम-कम पड़से हैं जैसे शुभयोग से पुण्य प्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अषिक पड़ता है पोर पाप