________________
मौकार प्रय
(६) जुगुप्सा–जिससे पदार्थों में ग्लानि रूप भाव हो । (७) वेद-जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो । (८) स्त्रीवेद-जिसके उदय से पुरुष से रमने की इच्छा हो। (६) नपुंसक वेद-जिसके उदय होते ही स्त्री-पुरुष दोनों से रमने के भाव हों। इस प्रकार कषाय के समस्त पच्चीस भेद होते हैं ?
निरतिधारपर्वक चारित्र पालने में निरुत्साही व मन्दोद्यमी होने को प्रमाद कहते हैं। इसके पन्द्रह भेद होते हैं-स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा, और देशकथा ये नार विकथा, क्रोध, मान, माया लोभ ये चार कषाय, स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रिय, स्नेह और निद्रा-ऐसे पन्द्रह प्रकार प्रमाद है।
स्त्रियों के अंग, हाव, भाव, वस्त्र और आभूषण प्रादि का वर्णन करना, उसके नेत्र कमल समाहै, गतिहिने रमाग है जिसः स बहुत सुन्दर रूपवान है इत्यादि वर्णन करना स्त्रीकथा है।
प्रमुक राजा कायर है, हमारा राजा शूर है, अमुक राज्य में घोड़ा तथा हाथी बहुत अच्छे होते हैं, अमुक राज्य में सेना बहुत है इत्यादि वर्णन करना राजकथा है।
लड्डू बरफी प्रादि पदार्थ खाने में अच्छे होते हैं, अमुक मनुप बहुत प्रोति से भक्षण करता है, मुझको भी ये पच्छे लगते हैं अमुक मिष्ठान अमुक देश में बहुत अच्छा बनता है, उसको मैं भी मंगाकर खाऊंगा। इस प्रकार खाने पीने की कथा को भुव कथा या भोजनकथा कहते हैं।
दक्षिण देश में अन्न की उपज अधिक होती है. वहाँ के निवासी भी अधिक विलासी है, पूर्व देश में अनेक प्रकार के वस्त्र, गुड़, शक्कर, बावल आदि होते हैं, उत्तर देश के पुरुष शूर होते हैं, वहीं गेहूं अधितर उत्पन्न होते हैं, कुम-कुम, दाख, दाहिम प्रादि सुगमता से मिलते हैं, पश्चिम देश में कोमल वस्त्र होते हैं, वहाँ जल निर्मल और स्वच्छ होता है इत्यादि देशों का वर्णन करना सो देशकथा है।
___इस प्रकार ये चार विकथाएं हैं। यदि ये ही कथायें राग-द्वेषरहित धर्मकथा के रूप से केवल प्रथं और काम पुरुषार्थ दिखलाने के लिए कहे जायें तो विकथा नहीं कही जा सकती हैं।
कषाय के चार भेद
(१) अपने और पर के घात करने के परिमाण तथा पर के अपकार करने रूप भाव अथवा क्रूर भाव क्रोध है।
(२) जाति, कुल एश्वर्यादि से उद्धत रूप तथा अन्य से नम्रोभूत न होने रूप परिणाम मान है।
(३) अन्य के ठगमे निर्मिस कुटिलता रूप माया है। (४) अपने उपकारक द्रव्यों में अभिलाषा रूप भाव व लोन है।
ऐसे धार कषाय हैं । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों के विषयों में स्वच्छन्द रूप से प्रवृत्ति और स्नेह के वशीभूत होकर-यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ -इत्यादि दुराग्रह। को स्नेह वा प्रणय अथवा मोह कहते हैं । जो खाये हुए अन्न के परिपाक होने में कारण हैं अथवा मद, खेद प्रादि दूर करने के लिए जो सोना है उसे निद्रा कहते हैं । ऐसे पन्द्रह प्रमाद का वर्णन किया।
योग-मन, वचन, काय के निमित्त से प्रारमा के प्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं। वे योग पन्द्रह प्रकार के हैं --चार मनोयोग, बार वचन योग पोर सात काययोग, अब इनका वर्णन