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________________ २३६ णमोकार ग्रंथ है। उसे बहुत शीन दे दो क्योंकि सूर्योदय होना उसके लिए प्रमंगलकारक है।" विशल्या ने कहा--पिताजी ! मैं मापसे अपनी धृष्टता की कमा प्रार्थी होकर निवेदन करती हूं कि मैं लक्ष्मण के गुण सुना करती थी और उसी समय उस पर मुग्ध होकर उन्हें अपना जीवनेश समझ लिया था । आज अवसर है। मैं स्वयं ही उनके पास जाकर अपना कर्तव्य पालन करती हूं। आप मुझे प्राज्ञा दीजिए।" द्रोण ने सुनकर कहा- अस्तु ! जैसी इच्छा हो स्वीकार है।" पिता की प्राज्ञा पाकर विशल्या विमान में प्रारूढ़ होकर हनुमान के साथ लक्ष्मण के पास जाने के लिए चल दी। वह जैसे जैसे लक्ष्मण के पास पहुंचने लगी शक्ति वैसे वैसे ही शरीर से निकलने लगी। विशल्या के लक्ष्मण के शरीर स्पर्श करते ही शक्ति शरीर से निकल भागी । लक्ष्मण की मूर्छा दूर हुई। तब वह एकदम यह कहता हुया मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो रावण 'चोर भागने न पावे सचेत हो गया। सबको अत्यन्त हर्प हुना। सबने बड़ा भारी मानन्दोत्सव किया। तदन्तर विशल्या का समस्त वृतान्त लक्ष्मण को सुनाकर उसका इस महाभाग के साथ विधि पूर्वक पाणिग्रहण करा दिया। उधर रावण अष्टाह्निका पर्व पाया जानकर बहुरूपणी विद्या साधन करने के लिए जिन मन्दिर जाकर ध्यान लगाकर अपना अभीष्ट सिद्ध करने लगा। जब यह वृत्तीत रामचन्द्र को विदित हुआ तो वे अंगद से बोले- अब अवसर अच्छा है तुम जामो और रावण को विद्या-सिद्धि में विघ्न करो।" रामचन्द्र की पाशा पाते ही अंगद अपने साथियों को साथ लेकर जहाँ पर रावण विद्या साधन कर रहा था, वहीं वह पहुंचा और महान घोर उपद्रव करने प्रारम्भ कर दिए परन्तु धीर बीर रावण इन के उपद्रवों की कुछ भी चिन्ता न कर वैसे ही ध्यान में लगा रहा। तब अन्त में इनको निराश होकर वापिस अपने डेरे पर लौटना पड़ा। अनुष्ठान समाप्त होने पर रावण को विद्या सिद्ध हो गयी। वह उसके द्वारा अनेक प्रकार के रूप धारण करने लगा। लक्ष्मण जब अच्छे हो गये तब फिर रामचन्द्र ने रावण के पास युद्ध करने के लिए आमन्त्रण पत्र भेजा। वह उसी समय सेना लेकर रणक्षेत्र में पा हुना। यह देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मण भी अपनी सेना लेकर युद्धभूमि में प्रा पहुंचे। अपनी अपनी सेना को लड़ने की दोनों ने आज्ञा दी। प्राशा पाते ही दोनों सेनामों में परस्पर घोर युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने राम से कहा-पूज्य ! आप तो यहीं ठहरें। मैं अभी जाकर पापी रावण को निष्प्राण किए देता हूँ।" लक्ष्मण के कहे अनुसार रामचन्द्र तो बाहर रहे और लक्ष्मण ने युद्धभूमि में प्रवेश किया। रावण और लक्ष्मण का भारी युद्ध हुमा। इस बार रावण लक्ष्मण को अपने सम्मुख बहुत देर तक युद्ध करते देखकर बड़ा क्रोधित हुा । उसने क्रोधाग्नि से प्रज्वलित होकर लक्ष्मण पर अग्नि बाण चलाया। उसे लक्ष्मण ने मेघबाण से काट दिया। रावण ने सर्प बाण चलाया । लक्ष्मण ने उसे गरुड बाण से काट दिया। रावण ने फिर तामस बाण चलाया । उसे लक्ष्मण ने सूर्य बाण से राका। रावण दूसरा बाण छोड़ना ही चाहता था कि लक्ष्मण में बड़ी फुर्ती से अपने अर्द्धचन्द्र बाण से उसका मस्तक छेदन कर दिया सिर कटते ही उसने दो मस्तक बनाए। लक्ष्मण ने इस बार दोनों सिर काट डाले । उसने चार सिर बना लिए । तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे रावण सिर बढ़ाता गया लक्ष्मण वैसे ही सिर काटता गया। यह देखकर रावण को बड़ा क्रोध आया। उस समय उसने अपूर्व शक्तिमान लक्ष्मण को साधारण उपायों से पराजित होता न देखकर क्रोधांध हो लक्ष्मण के ऊपर चक्र चलाया जिसकी हजारों देव सेवा करते रहते हैं। चक्र लक्ष्मण को कुछ भी हानि म पहुँचाकर उल्टा प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ गया। --51
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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