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________________ ८४ णमोकार ग्रंथ क्रियायें हैं । इनके स्वरूप का वर्णन आचार्य के छत्तीस गुणों में प्रा चुके हैं तो भी यहाँ केवल दिग्दर्शन मात्र इनका वर्णन किया जाता है- परद्रव्यों के राग, द्व ेष रहित होकर साम्य भाव रखना सामायिक है | ११ चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर का स्तवन करना वन्दना है |२| चोबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तवन है | ३| अतीत काल में अशुभ परिणाम किये हुए दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है |४| वांचना, पृच्छना आदि पांच प्रकार शास्त्रों का अध्ययन श्रथवा आत्म चिंतन करना स्वाध्याय है | ५| शरीर से ममत्व रहित होकर श्रात्मा में लीन होना कायोत्सर्ग है । ६ । इस प्रकार ये षट् आवश्यक हैं । अब शेष सात नियम गुणों को कहते हैं (१) प्रस्नान गुण जल तथा मल-युक्त शरीर होने पर भी स्नान नहीं करने को जल सिंचन आदि शरीर संस्कार नहीं करने को प्रस्नान गुण कहते हैं । परन्तु साधु को शूद्र के स्पर्श हो जाने पर तथा दीर्घ शंका, लघुशंका को जाने के पश्चात् षड् आवश्यक शुद्धि के निमित्त शुद्धता करना आवश्यक है । (२) भूमि शयन गुण जीवादि रहित प्राशुक भूमि में अथवा सस्तर रहित जिससे संयम का घात न हो ऐसी चटाई, लड़की के पटड़े तथा शिला आदि संस्तर पर एकान्त स्थान में पौधे प्रथवा सीध रहित एक करवट से दंड अथवा धनुष के समान शयन करने को भूमि शयन गुग कहते हैं । वागे पाँच नियम गुण कहते हैं दोहा - वस्त्र त्याग केशलोंच कर, लघु भोजन इकबार । मुख वांतन ना करें, ठाढ़ लेय श्राहार ॥ श्रर्थ - ( ३ ) वस्त्र त्याग गुण -मुनि धर्म के विराधक कपास, रेशम, सन के टाट आदि वनस्पति के वस्त्रों तथा भृगादिक से उत्पन्न मृगछाल मादि चर्म तथा वृक्षों के पत्र, छाल श्रादिक से शरीर को माच्छादित न करना और न सत्सम्बन्धित मन, वचन, काय प्रादि से राग करना वस्त्र त्याग गुण है । (४) केशलोंच गुण अपने हाथ से सिर, दाढ़ी, मूछों के केशों का उत्कृष्ट दो मास में, मध्यम तीन मास में, जघन्य चार मास में लोंच करना चौथा केशलोंच गुण है । (५) एक मुक्ति गुण ---तीन घड़ी दिन चढ़ने के बाद, तीन घड़ी दिन शेष रहने के पहले, मध्य में दो तीन मुहूर्त काल के भीतर ही भीतर दिन में केवल एक ही अल्प आहार लेना एक मुक्ति गुण कहलाता है । (६) प्रदन्त घोषन गुण इन्द्रिय संयम की रक्षा और वीतरागता को प्रगट करने के निमित्त हाथ की अंगुली से नख से व दातोंन के द्वारा दांतों का घोवन न करना मदन्त धोवन गुण है । (७) एक स्थिति भोजन - दीवार आदि के आसरे के बिना, दोनों पाँवों में चार प्रगुल का तर रखकर ४६ दोष, बत्तीस अन्तराय, चौदह मल दोष टालकर पाणिपात्र में प्राहार लेने को एक स्थिति भोजन कहते हैं । उपर्युक्त भट्ठाईस मूल गुणों को समुचित रूप से पालन करने से आत्मा के चौरासी लाख गुणों की उत्पत्ति होती है । उसका वर्णन इस प्रकार है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और तृष्णा पाँच पाप; कोष, मान, माया, लोभ ये चार कषायः मन, वचन, काय की तीन दुष्टता; मिथ्या दर्शन, प्रमाद, पैशुन्य, प्रज्ञान, भय, रति, परति, हास्य जुगुप्सा, इन्द्रियों का निग्रह इन २१ दोषों का त्याग करना और प्रतिचार, अनाचार, प्रतिक्रमण और व्यतिक्रमण I
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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