________________
८५
णमोकार प्रय ऐसे चार प्रकार से पृथ्वी कायिक प्रादि १० के परस्पर संयोग रूप (१००) सौ, की हिंसा का त्याग, दस प्रब्रह्म के कारणों का त्याग १०, आलोचना दोषों का त्याग १०. प्रायश्चित के भेदों से परम्पर गुणों से (२१४४४१००x१०x१०x१०-८४०००००) उपर्युक्त प्रकार दोनों के प्रभाव से प्रारमा में अहिंसा के चौरासी लाख उत्तर गुणों की प्राप्ति होती है।
अतिचार, अनाचार, अतिक्रमण, व्यतिक्रम के लक्षणइलोक-अतिक्रमो मानस शुद्धि हानि, व्यतिक्रमोयो विषयाभिलाषः ।
तथाति वारकरणालसत्वं, भंगोपनाचारमिहनतानि ।। अर्थ-मन की शुद्धता में हानि होना अतिक्रमण है। विषयों की अभिलाषा को व्यतिक्रम कहते हैं।
व्रत के आचरण में शिथिलता होना अतिचार है। सबंया बन का भंग होना अनाचार है। रत्नत्रयात्मक प्रात्मस्वरूप साधने में तत्पर और बाह्य में शास्त्रोक्त दिगम्बर वैपधारी, मलाईस मल गुणों के साधक साधु मेरी रक्षा करो।
कैसे हैं वे साथ? जिनके आत्मधान के बल से अनेक प्रकार की वृद्धि प्राप्त होती है इस अपेक्षा से उनको ऋद्धि भी कहते हैं । उन ऋद्धियों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
बुद्धि ऋद्धि, औषधिऋद्धि, क्षेत्रऋद्धि, वलम.द्धि, तपऋद्धि, रस ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि, और Pाति-पाखिनी है। इसमें पहली बुदिऋद्धिके अठारह प्रकार है
(१) केवल ऋद्धि-केवलज्ञान ब केवलदर्शन होना जिसमें त्रिकालवर्ती सर्व रूपी प्ररूपी द्रव्य के गुण समस्त गुण, पर्याय को जानना तथा देखना ।
(२) मनः पर्यायऋद्धि-यह ऋद्धि ऋजुमति, तथा विपुलमति दा प्रकार की है। पर के मन में स्थित पदार्थ को किसी की बिना सहायता से जान लेना ननः पर्याय ऋद्धि है।
(३) अवधि ऋद्धि-यह देशावधि, सविधि परमावधि, नाम से तीन प्रकार को त्रिकालगोचररूपी पदार्थों को देशकाल की मर्यादा लिए जान लेना अवधि ऋद्धि है।
(४) वीर्यवृद्धि ऋद्धि-किसी ग्रन्थ के एक श्लोक को ग्रहण करके सम्पूर्ण ग्रन्थ का भान होना।
(५) कोष्ठबुद्धिऋद्धि-जिस प्रकार कोठे में नाना प्रकार की वस्तुएं रखी रहती हैं और पावश्यकता होने पर अलग-अलग वस्तु निकाल कर देते हैं इसी प्रकार मुनीश्वर जो कुछ पड़े अथवा सुने, यह भिन्न-भिन्न याद रहे, एक वार्ता का अक्षर दूसरी वार्ता में न मिले उसको कोष्ठवुद्धिऋद्धि अथवा कोष्ठस्थाधान्योपम् ऋद्धि कहते हैं।
(६) सम्भिन्नस्रोतऋद्धि-बारह योजन लम्बे, नौ योजन चौड़े क्षेत्र के मनुष्य पशुत्रों का शब्द एकत्र एक काल में भिन्न-भिन्न श्रवण करना ।
(७) पदानुसारिणीकऋद्धि-प्रादि मध्यान्त के एक-एक पद से ही समस्त ग्रन्थ का कंठान हो जाना।
(6) दूरी स्पर्शन ऋद्धि-आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान पवन के स्पर्श होने से हो जाना। (६) दूरी रसनऋद्धि- मनुष्य क्षेत्र के रसों का स्वाद जान लेना। (१०) दूरी गंधादि-बहुत दूर के सुगन्ध, दुर्गन्ध का मानना।