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________________ णमोकार प्रेष प्रर्थात् उस काम को, उस मोह को और उन भोगों को धिक्कार है जिनके वश होकर उत्तम मार्ग में चलने वाले भी अपना हित नहीं कर पाते। यही हाल पुष्प डाल का हुआ जो मुनि होकर भी मपनी स्त्री को हृदय से न भुला सका। इस प्रकार पुष्पडाल को बारह वर्ष व्यतीत हो गये । उसकी तपश्चर्या सार्थक होने के लिए गुरु ने उसे तीर्थ यात्रा कर पाने की माज्ञा दी और उसके साथ स्वयं भी चल दिए। वे दोनों मुनि तीर्थ यात्रा करते-करते एक दिन भगवान महावीर के समवशरण में पहुंचे। भगवान को उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। उस समय गंधर्व देव भगवान की भक्ति कर रहे थे। उन्होंने काम की निंदा में एक पथ पड़ा। वह पद्य यह या महल कुचली दुम्मणी पाहेपसियण्ण, कह जोवे सहसणिय घर उम्भते विरहेण ॥ अर्थात् स्त्री चाहे मैली हो, कुचली, हो, हृदय की मलिन हो पर वह भी अपने पति के प्रवासी होने पर, विदेश में रहने पर नहीं जीकर पति वियोग से बन-बन पर्वतों-पर्वतों में मारी फिरती है अर्थात् काम के वश होकर न करने योग्य काम भी कर डालती है।। उक्त पद्य को सुनते ही पुष्पडाल मुनि भी काम से पीड़ित होकर अपनी स्त्री को प्राप्ति के लिए व्रत से उदासीन होकर अपने नगर की पोर चले गये । वारिषेण मुनि भी उनके हृदय की बात जानकर उनको धर्म में दृढ करने के लिए उनके साथ-साथ चल दिए। शिष्य सहित वारिषण मुनि भी नगर में पहुंचे। उन्हें देखकर चेलना रानी ने सोचा कि मालूम होता है पुत्र चारित्र से चलायमान हो गया है नहीं तो इस समय इनके यहाँ पाने की क्या आवश्यकता थी? यह विचार कर उनको परीक्षा के लिए उनके बैठने को एक काष्ठ का और दूसरा रत्न जड़ित ऐसे दो सिंहासन दिए । वारिषेण मुनि रत्न जड़ित सिंहासन पर न बैठकर काष्ठ के सिंहासन पर बैठे ! सच है सच्चे मुनि ऐमा कार्य नहीं करते जो प्राचरण में संदेहजनक हो। इसके पश्चात वारिषेण मुनि अपनी माता का संदेह दूर करने के लिए कहा--माताजी, कुछ समय के लिए मेरी सब स्त्रियों को तो यहाँ बुलावा लीजिए। महारानी ने वैसा ही किया। वारिषेण की समस्त स्त्रियां बस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर मुनि के सम्मुख उपस्थित होकर उनके चरणारविंदों को नमस्कार कर उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगीं । वारिषेण ने अब अपने शिष्य पुष्पडाल मुनि से कहा-देखो! ये मेरी स्त्रियां हैं, यह राज्य है यह सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये प्रच्छी जान पड़ती हैं और तुम्हारा संसार से प्रेम है तो इन सबको तुम स्वीकार करो। वारिषेण की यह आश्चर्य में डाल देने वाली बात सुनकर पुष्पडाल को बड़ा खेद हुया वह गुरु के चरणों को नमस्कार कर कहने लगा-प्रभो! आप धन्य हैं। अपने ही लोभरूपी विशाच को नष्ट कर जिन धर्म का सच्चा सार समझा है। कृपासागर ! वास्तव में मैं तो जन्मांध हूँ। इसीलिए तो तप रत्न को प्राप्त करके भी अपनी स्त्री को चित्त से पृथक नहीं कर सका ! प्रभो! मुझ पापी ने बारह वर्ष व्यर्थ व्यतीत कर दिये। मात्मा को कष्ट पहुंचाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया । स्वामी ! मैं बहुत अपराधी हूं। अतएव कृपया प्रायश्चित्त देकर पवित्र कीजिए। पुष्पडाल के भावों का परिवर्तन और कृतकर्म के पश्चाताप से उनके परिणामों की कोमलता व पवित्रता देखकर बारिषेण मुनिराज बोले धीर! इतने दुःखी न बनिए । पाप कर्मों के उदय से कभी
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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