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णमोकार - ग्रंथ
भावार्थ श्राचार्य और मुनि उपवास करते हैं, नित्य प्रति बाहर नहीं करते, क्योंकि नित्य आहार करने से शरीर पुष्ट हो जाता है और शरीर के पुष्ट हो जाने से बल बढ़ता है और बल बढ़ने से इंद्रिय बल बढ़ता है इसलिए इंद्रियां वश में नहीं रहती जिससे तप का उद्यम नहीं होता इसलिए श्राचार्य मुनि श्रनशन तप धारण करते हैं ।
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कनोदर -
तप अर्थात् कम भोजन करने को ऊनोदर तप कहते हैं । भावार्थ - प्राचार्य व मुनि कम आहार ग्रहण करते हैं । कारण की उदर परिपूर्ण श्राहार करने से थालस्य अर्थात् प्रमाद बढ़ जाता है प्रमाद चढ़ने से तप, जप संयम, पठन-पाठन प्रादि क्रियाओं में सावधानी होती है। ऐसा समझकर आचार्य मुनि ऊनोदर तप करते हैं अर्थात् आहार कम मात्रा में लेते हैं ।
प्रतिपरिसंख्यान तप
अर्थात् आहार के विषय में प्रटपटी वृत्ति लेकर विचरता ।
भावार्थ - जब श्राचार्य या मुनि श्रहार के लिए वन से गमन करते हैं तब ऐसी वृत्ति विचारे कि आज हम एक दो, चार या पाँच घर में ही प्राहार के लिए जायेंगे अथवा किसी एक मुहल्ले में ही जायेंगे, इतने में यदि भिक्षा मिल गयी तो आहार लेंगे अन्यथा नहीं लेंगे तथा मिट्टी के कलश, चांदी के कलश, पीतल के कलश, ताँबे के कलश आदि जहाँ मिलेंगे तो उस घर में जायेंगे. मैदान में या अमुक स्थान में अमुक भोजन मिलेगा तब ग्राहार ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं । इस प्रकान की अटपटी वृत्ति लेकर वन से गमन करना और नियमानुसार यदि आहार की विधि न मिले तो पुनः वन में वापिस लौट कर उपवास करना । इस प्रकार के नियम को प्रतिपरिसंख्यान कहते हैं ॥ ३॥
रस परित्याग तप
इन्द्रियों को दमन करने के लिए, संयम की रक्षा के लिये, जिह्वेन्द्रिय की लोलुपता के निवारण के लिए दूध, घी, दही, तेल, शक्कर नमक श्रादि रसों का यथासमय त्याग करना रसपरित्याग तय है ॥ ४ ॥
विविक्त शय्यासन -
जीवों की रक्षा करने के लिए प्रासुक स्थान में जैसे मठ, गुफा, पर्वत तथा बनखंडादि एकान्त स्थान में जहाँ पर ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान, पठन पाठनादि क्रियाओं में विघ्न न हो, वहां पर शयन तथा प्राशन करना विविक्त शय्याशन तप है ॥ ५ ॥
कायक्लेश तप-
शरीर के सुख स्वभाव को मिटाने के लिए तथा दुःख प्राप्त होने पर कायरता न होने के लिए शरीर को याशक्ति कष्ट देते रहना अर्थात् शरीर का ममत्व भाव त्याग करना, जैसे उष्ण ऋतु में सूर्य सम्मुख होकर तप करना तपे हुए पहाड़ पर जा कर तपकरना काय क्लेश तप है || ६ || ये छह प्रकार
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बाह्य तप हैं तथा लोगों को दिखाई देने के कारण बाह्य तप कहलाते हैं उपर्युक्त छह वाह्य तपों का पालन करने वाला ही श्राभ्यन्तर तपों का सम्यक प्रकार से पालन कर सकता है इसलिए सबसे पहले बाह्य तप का वर्णन किया गया ।
अब छह प्रकार ग्राभ्यन्तर तप का वर्णन करते हैं
दोहा - प्रायश्चित बिनय व वैयावृत स्वाध्याय । पुनव्यत्सगं विचारके, धरें ध्यान मन लाय ॥