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________________ णमोकार ग्रंथ अर्थ - प्रायश्चित १. विनय २. वैयावृत्य ३ स्वाध्याय ४ व्युत्सर्ग ५. और ध्यान ६. ये छह अभ्यन्तर तप कहलाते हैं । فف प्रमाद अर्थात् आलस्य से जो दोष लगा हो उसे दूर करने के लिए ध्यान करना तथा गुरु से निवेदन करके दंडादि लेना प्रायश्चित तप है || १|| पूज्य पुरुषों का आदर सत्कार करना विनय तय है || २ || मुनि आदि के रोगादि से ग्रस्त होने पर उनकी सेवा टहल करना वैयावृत्य तप है || ३ || आलस्य को त्याग कर ध्यानाध्ययन करना व उपदेश देना स्वाध्याय तय है ॥४॥ धनधान्यादि बाह्य परिग्रह तथा अंतरंग क्रोधादिपरिग्रह को छोड़कर शरीर से ममत्व का त्याग करना व्युस्सर्ग तप है | ५ | चित्तवृत्ति को सब तरफ से संकोच कर एक ओर चित्त को स्थिर करना ध्यान तप |६| इस प्रकार से छह तप हैं आगे हम इन तपों के भेद कहते हैं : सबसे पहिले प्रायश्चित के नौ भेदों का विवेचन करते हैं प्रायश्चित के आलोचना १. प्रतिक्रमण २. तदुभय अर्थात् यालोचना और प्रतिक्रमण ये दोनों ३. विवेश ४ व्युत्सर्ग ५ तप ६. छेद ७. परिहार ८. तथा उपस्थापनानी प्रकार हैं। मूलगुणों में यदि कोई दोष लग जाए तो उसका बारम्बार चिन्तन करते हुए अपने को freकारना करना गुरु के हुए दोपों को स्पष्ट रीति से कहना ग्रावोचना है ||१|| मैंने जो प्रमादवश अपराध किया है, मेरे सामायिक आदि करने में जो दोष लगा हो वह मिथ्या हो इस प्रकार कहना प्रतिक्रमण है ||२|| कोई दोष हो जाय तो आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाता है और कोई दोष प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होता है और कोई दोनों के करने से शुद्ध होता है । इस प्रकार चालोचना और प्रतिक्रमण करने को उभय प्रायश्चित कहते हैं || ३ || आहार पान उपकरणादि का किसी नियमित समय तक त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित है। विवेक अर्थात स्याग की हुई वस्तु यदि अनजान से उदय में ग्रा जाय तो उसे न लेना और इस प्रकार का विचार करके आहार ग्रहण करना विवेश है ||४|| काल का परिमाण करके कायोत्सर्ग करना ब्युत्संग है ||५|| अनशन आदि तप अथवा बेला, तेला श्रादि उपवास करना प्रायश्चिततप है || ६ || दिन पक्ष, मास संवतरादि का परिमाण कर दीक्षा का छेत्र करना छेद प्रायश्चित है ||७|| पक्ष मासादि के नियम से संघ से पृथक कर देना परिहार प्रायश्चित है ||६|| समस्त दीक्षा को छेद कर पुनः दीक्षा को देना उपस्थापना प्रायश्चित है | इस प्रकार प्रायश्चित के नौ भेद जानने चाहिए । दूसरा आभ्यन्तर विनय तप है। जिसके दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय ऐसे चार भेद हैं। निःशक्ति प्रादि दोष रहित सम्यग्दर्शन की आराधना करना दर्शन विनय है। ||१|| प्रमाद रहित होकर वृद्ध मन से अत्यन्त सम्मान पूर्वक जिन सिद्धान्त को पढ़ना ज्ञान विनय है || २ || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के धारी पाँच प्रकार के चरित्र को पालन वाले मुनिजनों से प्रेम करना चारित्र विनय है ||३|| आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखते ही खड़े हो जाना, सन्मुख जाकर हाथ जोड़ना, उनके 'पीछे-पीछे गमन करना मन से उनका गुणगान करना तथा वार-बार उनका स्मरण करना उपचार विनय है । तीसरा क्यान्यव तप है । प्राचार्य १. उपाध्याय २. तपस्वी ३ शैशिक्ष ४. ग्लान ५. राण ६. कुल ७. संघ ८. साधु . और मनोज्ञ १०. इन दस प्रकार के साधुओं की वैयावृत्य करना अर्थात् शरीर सम्बन्धी व्याधि अथवा दुष्ट जीवों द्वारा किये हुए उपसर्गादि के समय सेवा करना ये दश प्रकार के वैयावत्य हैं।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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