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________________ णमोकार प्रय लज्जा कैसी ? पुरुषोत्तम ने फिर कहा-'अस्तु । जैसा तुम कहते हो वैसा हो सही परन्तु तब तो केवल पाठ हो दिन के लिए ब्रह्मचर्य त दिया था, न कि आयु पर्यन्त ।' तब दोनों भाइयों ने कहा-"पिता जी ! हम मानते हैं कि आपने अपने भावों से हमें आठ हो दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत दिलवाया होगा, परन्तु न तो आपने उस समय इसका खुलासा कहा था और न मुनिराज ने ही। तब हम कैसे समझे कि व्रत पाठ ही दिन के लिए था। अतएव हम तो अव उसका आजन्म पालन करेंगे। ऐसी हमारी दह प्रतिज्ञा है। हम सब विवाह नहीं करेंगे । पुत्रों की बातों को सुनकर उनके पिता को बड़ी निराशा हुई पर वे कर भी क्या सकते थे। यह कहकर दोनों भाइयों ने गृहकार्य से सम्बन्ध छोड़कर अपना चित्त शास्त्राभ्यास की ओर लगाया । थोड़े ही दिनों में ये अच्छे विद्वान बन गए। इनके समय में बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार या प्रतएव उन्हें उसके तत्व को जानने की जिज्ञासा हुई। उस समय मान्यखेट में ऐसा कोई विद्वान नहीं बौद्ध धर्म का अभ्यास करते इसलिए ये एक अज्ञविद्यार्थो का भेष बनाकर महाबोधि नामक स्थान में बौद्धधर्माचार्य के पास गए । प्राचार्य ने इनकी अच्छी तरह परीक्षा करके कहा कि कहीं ये छली तो नहीं है। जब उन्हें इनकी तरफ से बढ़ विश्वास हो गया तब वे और शिष्यों के साथ-साथ उन्हें भी पढ़ाने लगे। ये अन्तरग में ता पक्क जिनधर्मी और बाहर एक महामूर्ख बनकर सख्यं-ज्ञान सीखने लगे। निरन्तर बौद्धधर्म श्रवण करते रहने से अकलंक देव की बुद्धि बड़ी विलक्षण हो गई। उन्हें एक ही बार के सुनने से कठिन वात भी याद होने लगी और निकलंक को दो बार के सुनने से अर्थात् अकलंक एक संस्थ और निकलंक दो संस्थ हो गए। इस प्रकार वहाँ रहते-रहते दोनों भाइयों का बहुत समय बीत गया। एक दिन की बात है कि बौद्ध गुरु अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे उस समय जनधर्म के सप्तभंगी न्याय सिद्धान्त का प्रकरण था। वहां कोई ऐसा अशुद्ध पाठ पा गया जो बौद्ध गुरु की समझ में न आया तब वे अपने व्याख्यान को बहीं समाप्त कर कुछ समय के लिए बाहर चले आये । अकलंक बड़े बुद्धिमान थे वे बौद्ध गुरु के अभिप्राय को समझ गये। इसीलिए उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उस पाठ को शुद्ध कर दिया और उसकी खबर किसी को न होने दी। इतने में पीछे बौद्ध गुरु पाये उन्होंने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया। जो पाठ अशुद्ध था वह अब देखते ही उनकी समझ में आ गया। वह देखकर उन्हें स न्देह हुआ कि अवश्य इस जगह कोई जिनधर्म रूप समुद्र का बढ़ाने वाला चन्द्रमा है और वह हमारे धर्म को नष्ट करने की इच्छा से बौद्ध भेष धारण करके बौद्ध शास्त्र का अभ्यास कर रहा है । उसको शीघ्र ही खोज लगाकर मरवा डालना चाहिए। इस विचार के साथ बौद्ध गुरु ने सब विद्यार्थियों को शपथ प्रतिज्ञा आदि देकर पूछा पर जैनधर्मी का पता उन्हें नहींलगा तब उन्होंने जैन प्रतिमा मंगाकर उसको लांघ जाने के लिए सब को कहा ! सब विद्यार्थी तो लांच अकलंक की बारी आई। उन्होंने अपने कपड़े में से एक सूत का धागा निकाल कर उसे प्रतिमा पर डाल दिया और उसे परिग्रही समझकर वे उसे लांघ गये। यह कार्य इतनी जल्दी किया कि किसी को समझ में न आया । बौद्ध गुरु इस कार्य में भी जब कृतकार्य न हुए तब उन्होंने एक और नवीन युक्ति की। उन्होंने बहुत से काँसी के बर्तन एकत्रित करवाये और उन्हें एक बड़ी भारी गौन में भरकर वह बहुत गुप्त रीति से विद्यार्थियों के सोने की जगह के पास रखवा दी और विद्यार्थियों की देख-रेख के लिए अपना एक गुप्तचर रख दिया। आधी रात के समय जब सब विद्यार्थी निडर होकर निद्रा देवी की गोद में सुख का अनुभव कर रहे थे, किसी को कुछ मालूम न था कि हमारे लिए क्या षडयन्त्र रचे जा रहे हैं 1 एकाएक बड़ा विकराल शब्द हुआ मानों आकाश में विद्युत्पात हुप्रा हो ! सब विद्यार्थी उस भयंकर शब्द से थरथरा उठे वे अपना जीवन बहुत थोड़े समय के लिए समझकर अपने उपास्य परमात्मा का
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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