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________________ ३३४ णमोकार प्रय एव काकताली न्यायवत मिले हुए नर जन्म को पाकर विषयों के सेवन में ही बिताया तो फिर अनन्त काल में भी इसका पाना दुर्लभ है जैसे समुद्र में गिरी हुई राई का दाना फिर हाथ लगना कठिन है और यह दुर्लभ सन्मार्ग का साधन सिवाय मनुष्य जन्म के अन्य देव, नक, गशु आदि गतियों से मिल नहीं सकता अतएव यह अवसर हाथ से निकल गया तो फिर पछतावा रह जायगा । जैसे कोई अज्ञानी चिन्तामणि को पाकर उसे काग उड़ाने के लिए फेंककर पछताता है इसलिए अपूर्व लब्ध मनुष्य जन्म को पाकर परमात्मा स्वरूप में तल्लीन हो रत्नत्रय का पाराधन कर इस शरीर से प्रारम कल्याण किया जाय तब ही मनुष्य जन्म का पाना सफल है। ये उन मनुष्यों का वक्तव्य बहुत ठीक है। स्वतः इस विचार पर प्रमाण आचरण करने पर तो माता-पिता को बहत दुख होगा परन्तु साथ में यह विचार हुआ कि माता पिता, भाई, बन्धु प्रादि कौन किसका है जिनका जितना सम्बन्ध है सो सव शरीर के साथ में है प्रात्मा के साथ नहीं। जो इस भाव से मात, पिता, भ्राता होते हैं वे ही भवान्तर में पुत्र हो जाते है। जब तक उस शरीर में प्रात्मा का अस्तित्व है तब तक इससे सब प्रेमपूर्वक वार्तालाप करते हैं। जहां इस प्रात्मा का शरीर मे वियोग इत्या वयाँ बाप्ली समय हो मनसे सम्बन्ध एवं सगापन छूट जाता है। जिस सुकोमल शरीर की वस्त्र भूषणों से सुसज्जित सुन्दर-सुन्दर व उत्तम-उत्तम स्वादिष्ट पदार्थों से पोषण किया जाता है उरा शरीर का भी अन्न में नाश हो जाता है। प्रतएव यह सर्व संसार असार है इसलिए विपमिश्रित मिष्ठानवत इन्द्रिय जनित सुखों को परित्याग कर क्रोध, मान, माया, लोभ रूप निजात्मीक सम्पदा के लूटने वाले संस्कारों को जीतना चाहिए । इसके अतिरिक्त प्रात्मोन्नति का और कोई दूसरा उत्तम उपाय नहीं । प्रस्तु जो हुआ सो हमा अव भी मुझ अपने कर्तव्य के लिए बहुत समय है। अब मैं इन सज्जन परोपकारी मुनिराजों की सत्संगति को कदापि न छोड़गा। इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके कुन्दकुन्द कुमार मुनिराज के पास गये। ये मुनिराज अपनी ५६ वर्ष की अवस्था में अपने गुरु माघनन्दि द्वारा विक्रम संवत ४० में पट्टाधिकार पाने वाले जिन चन्द्र मुनि थे। फन्दकन्द कुमार उनको राभक्ति नमस्कार कर उनके निकट जा बैठे और अवसर पाकर उनसे विनीत भाव से ज्ञानामृत गान करने की जिज्ञासा प्रगट की। इस समय कुन्दकुन्द कुमार की आयु ग्यारह वर्ष की थी। जिन चन्द्र स्वामी ने इनको विनोत और मुमुक्ष जान धर्मोपदेश देना और जिन सिद्धान्त अध्ययन कराना प्रारम्भ कर दिया। अन्त में कुन्दकुन्द कुमार ने भी उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया और उनके संघ के साथ साथ ज्ञानामृत पान करते विहार करने लगे। जब इनके माता पिता को जिनचन्द्र मुनिवर के निकट शिष्यत्व स्वीकार करने का वृतान्त विदित हुमा तब एक बात तो उन्हें अपने प्रिय पुत्र का वियोग दुःखकर हमा परन्तु साथ ही उन्हें एक दृष्टि से हर्ष भी हुमा कि पुत्र सुपथ (आत्म कल्याण) मार्गी ही हुआ है, कुपथ मार्गी नहीं। इस प्रकार विचार दृष्टि द्वारा अपने मन का स्वतः समाधान कर लिया 1 कुन्दकुन्द कुमार ने थोड़े ही समय द्वारा सिद्धान्त शास्त्र का अच्छा अभ्यास किया और बहुत ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। गुरु इनकी बुद्धि, विद्वतर, तर्क शक्ति और सर्वोपरि इनकी स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही संतुष्ट हुए 1 दूसरे ये सांसारिक विषय भोगों से पूर्ण विरक्त थे इसी कारण ये जिनचन्द्राचार्य के शिष्यों में पट्टशिष्य हुए। इनको प्राचार्य महाराज ने पट्टशिष्याधिकार पूर्ण शास्त्रज्ञ होने से नहीं किन्तु इनकी सांसारिक विषय सुखों से पूर्ण विरक्ति देखकर दिया था। कुन्दकुन्द कुमार ने अपनी तेतीस वर्ष की प्रायु में गुरु जिनचन्द्राचार्य के पास बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर जिसेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर लो ! जिनचन्दाचार्य स्वतः अवधिज्ञानी थे । अपना मन्त
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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