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________________ ३५१ णमोकार ग्रंथ प्रागे नीचीपपादादिवान् व्यंतर देवों का विशेष वृतांत लिखते हैं--पृथ्वी से एक हाथ ऊपर क्षेत्र में नीचीपपाद व्यंतर देव हैं उनके ऊपर दस-दस हजार ऊँचे क्षेत्र में क्रम से (१) दिग्वासी, (२) अंतरनिवासी और (३) कूष्मांड जानने चाहिए तथा बीस-बीस हजार हाथ क्षेत्र के अन्तराल से क्रमशः उपरोपरि (१) उत्पन्न, (२) श्रन्युत्पन्न, (३) प्रमाण, (४) गंध, (५) महागंध, ६) भुजग, (७) प्रोतिक और (5) श्राकर्षोत्पन्न - नामक व्यंतर देव जानने चाहिए । आगे इन नीचोपपादिकों की क्रम से श्रायु कहते हैं नीचोपवादों की दस हजार दिग्वासिकों की बीस हजार भवनवासियों की तीस हजार, कूप्मांडों की चालीस हजार, उत्पन्नों की बीस हजार, श्रनुत्पन्नों की साठ हजार, प्रमाणों की सत्तर हजार, गधों की मस्सी हजार महागंधों की चौरासी हजार, भुजंगों की पत्य का भ्रष्टमांश प्रीतिकों की पल्य का चतुर्थांश. माकाशोत्पन्नों की अर्द्ध पल्य प्रमाण श्रायु है । व्यतरों के निलय श्रर्थात् स्थान तीन प्रकार के हैं - (१) भवनपुर, (२) भावास और (३) भवन | उनमें से द्वीप वा समुद्रों में भवनपुर, द्रह, पर्वत तथा वृक्षों में आवास और चित्रा पृथ्वी में भवन होते है । मागे इनका स्वरूप कहते हैं-जो पृथ्वी से ऊँचे स्थान में हों वे प्रावास, जो पृथ्वी की बाहुल्यता में हों वे भवन और जो मध्य लोक की समभूमि पर हों उन्हें भवनपुर कहते हैं। चित्रा और बत्रा पृथ्वी की मध्य सन्धि से लेकर सिकन के विस्तऔर परिचित समस्त क्षेत्र में व्यंतर देव अपने-अपने योग्य स्थान, भवन, भवनपुर वा आवासों में निवास करते हैं। कितने ही व्यंतर देवों के भवन, कितनों के भवन और भवनपुर दोनों और कितनों के भवन, भवनपुर और भावास तीनों ही होते हैं तथा भवनवासियों में प्रसुकुमारों के बिना अन्य कुल वाले देवों के भवन, भवनपुर और प्रवास ये तीनों प्रकार के निलय होते हैं ऐसा श्रीत्रिलोकसार में व्यंतराधिकारान्तर्गत् गाथा दो सौ छपाणों में कहा है । व्यन्तर देवों के उत्कृष्ट भवनों का विस्तार बारह हजार योजन, उदय तीन सौ योजन और जघन्य भवनों का विस्तार पच्चीस योजन और उदय पौण योजन जानना चाहिए। उन प्रत्येक भवनों के मध्य अपने-अपने भवन के उदय से तृतीय भाग परिमित ऊँचे कूट हैं जिन पर जिन भगवान के मंदिर बने हुए हैं वलयादि चाकार रूप जो व्यन्तरों के पुर हैं उनका उत्कृष्ट विस्तार लक्ष योजन और जघन्य विस्तार एक योजन है । वलयादि श्राकार रूप जो आवास हैं उनका विस्तार दो सौ अधिक बारह हजार योजन और जवन्य विस्तार पौन योजन है । भवन प्रवासादिकों में कोटद्वार, नृत्यशाला, गृह आदि सब होते हैं । यहाँ जैसे भूमि में तहखाने होते हैं वैसे वहाँ भवन, जैसे नगर होते हैं व से भवनपुर और जैसे नगरों से पृथक स्थानों में मंदिर होते हैं व से आवास होते हैं। इन सब व्यंतर देवों के किंचित अधिक पाँच दिन बोतने पर श्राहार और किंचित अधिक पाँच मुहूर्त बीतने पर उच्छ्वास होता है । इति व्यन्तर देव वर्णन समाप्तः । मथ ज्योतिष देव वर्णन प्रारम्भ: जम्बूद्वीप के मध्य विदेह क्षेत्र के मध्य प्रदेश में एक लाख योजन ऊँचा सुमेरू पर्वत है जिसमें से एक हजार योजन भूमि में और निन्यानवे हजार योजन भूमि के ऊपर है। उस मेरू के भूगत अर्थात मूल पृथ्वी के ऊपर भद्रशाल वन है। उस भद्रशाल बन के तल से सात सौ नब्बे योजन की ऊंचाई पर नव सौ योजन के उदय पर्यन्त विस्तार में धनोदधि बातवलय का स्पर्श करते हुए ज्योतिष देव स्थित हैं।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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