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________________ णमोकार प्रय ३५० के देवों के गज, घोटक, पियादा, रथ, गंधर्व, नर्तकी और वृषभ ये सात प्रकार की धानीक अर्थात् सेना है। इन गज आदि सप्तधा श्रनीकों के क्रम से सुज्येष्ठ, सुग्रीव, विमल, मरुदेव, श्रीदाम, दामश्री और विशाल- ये सात देव महत्तर अर्थात् प्रधान जानने चाहिए। प्रत्येक प्रानीक में सात-सात कक्ष अर्थात् फौज है उनमें प्रथम प्रानीक के प्रथम कक्ष का प्रमाण अठाईस हजार है फिर आगे के कक्षों में उससे द्विगुण - द्विगुण प्रमाण जानना चाहिए जैसे कि पुरुषेन्द्र के अठाईस हजार हाथो प्रथम कक्ष में हैं और सात कक्ष है तो प्रथम कक्ष के हाथियों की संख्या को द्विगुणा करने पर दूसरे कक्ष में छप्पन हजार, तोसरे में एक लाख बारह हजार, चौथे में दो लाख चौवीस हजार पांचवें में चार लाख अड़तालीस हजार, छठ में आठ लाख छयानवें हजार और सातवें में सत्रह लाख बागवें हजार हुए। सातों कक्षों का जोड़ लगाने पर सब पैंतीस लाख छप्पन हजार हुए इसी प्रकार इतने इतने पोटक आदि जानने चाहिए। सात प्रकार के समस्त ग्रानीकों का प्रमाण दो करोड़, अड़तालीस लाख, वाणवें हजार हुआ । सब व्यन्तरेन्द्रों के समान धानीक हैं इस कारण सब व्यन्तरेन्द्रों के इतना ही प्रमाण है और प्रकीर्णक, आभियोग्य, किस्विषक आदि प्रसंख्यात हैं 1 प्रागेव्यन्तरेन्द्रों के जहाँ पर नगर हैं उन द्वीपों के नाम कहते हैं (१) अम्जनक, (२) बज्रधातुक, (३) सुवर्ण, (४) मनः शिलक, (५) बा, (६) रजत, (७) हिंगुल और (८) हरिताल इन आठों द्वीपों में क्रम से किन्नर आदि अष्टविध व्यन्तरों के नगर हैं। यथाअन्न द्वीप में किन्नरों के नगर हैं वहाँ जिस इन्द्र का नाम पहले कहा है उसके नगर दक्षिण में और जिसका नाम पीछे कहा है उनके नगर उत्तर में जानने चाहिए। प्रत्येक व्यंतरेन्द्र के पांच-पांच नगर हैं। व्यन्तरेन्द्र के नाम से तो मध्य के नगर का नाम जानना चाहिए और उसके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशाओं में इन्द्र के नाम के आगे क्रम से प्रभा, कान्त, प्रावर्त और मध्य का योग करने पर पूर्व, दक्षिण, पश्चिमोत्तर दिशस्थ नगरों के नाम जानने चाहिए। यथा- किन्नर नाम के इन्द्र के पाँव नगर हैं तो मध्य के नगर का नाम किनरपुर और पूर्व दक्षिण, पश्चिमोत्तर दिशाओं के नगरों के नाम क्रम से किन्नरप्रभ, किन्नरकांत, किन्नरावतं श्रौर किन्नर मध्य जानने चाहिए। इसी प्रकार समस्त इन्द्रों के नगरों के नाम जानने चाहिए। ये सब नगर समभूमियों के ऊपर जम्बूद्वीप के समान (लक्ष योजन व्यास वाले ) साढ़े तीस योजन ऊँचे, भूमि में साढ़े बारह योजन चीड़े, और ऊपरोपरि क्रमश: न्यून होकर ऊपर पढ़ाई योजन चोड़े प्रकार प्रर्थात् कोट संयुक्त है । उन कोटों के साढ़े बासठ योजन ऊँचे और सवा इक्तीस योजन चौड़े द्वार अर्थात् दरवाजे हैं और उन द्वारों पर पिचहत्तर योजन ऊँचा प्रासाद है जिसे सुधर्मा नामक सभा कहते हैं क्योंकि उसी प्रासाद के मध्य में साढ़े बारह योजन लम्बी, साढ़े छह योजन चौड़ी और नव योजन ऊँची सुधर्मानामक सभा है इसकी प्रधिष्ठान भूमि एक कोश मोटी है। इस सुधर्मा नामक सभा के द्वार का उदय (ऊंचाई) दो योजन और व्यास (चौड़ाई) एक योजन जाननी चाहिए। इसी प्रकार नगर, प्राकार, द्वार आदि का प्रमाण दक्षिणेन्द्रों के समान ही उत्तरेन्द्रों का जानना चाहिए। उन नगरों के दो-दो हजार योजन परे चारों दिशाओं में एक लम्बे, और पचास हजार योजन चौड़े बन खण्ड अर्थात् बाग हैं। प्रत्येक इन्द्र की गणिका महत्तरियों के नगर अपने इन्द्रों के पुरों के पार्श्व भाग में चौरासी हजार योजन लम्बे और इतने ही चौड़े हैं। अवशेष व्यन्तरों के स्थान नगर अनेक द्वीप समुद्रों में होते हैं । मागे कुल अपेक्षा निलय भेद कहते हैं रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग में भूतों के चौदह हजार भवन हैं पौर पंकभाग में राक्षसों के सोलह हजार भवन हैं। व्यंतरों के भवनवत् इनके भी भवन भूमि की मोटाई में जानने चाहिए । अवशेष जो वान व्यंतर देव हैं उनके स्थान भूमि पर होते हैं । |
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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