________________
णमोकार ग्रंथ
१२०
अपना धर्म है। इसकी प्राप्ति के बिना यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करता रहता है। वह धर्म ही संसारसागर से निकाल मोक्षस्थान में पहुंचाने वाला है इस प्रकार से धर्म स्वरूप का चितवन करना धर्म मनुप्रेक्षा है ।
॥ इति द्वादशानुप्रेक्षा । अथ बाईस परीषह वर्णन -
असातावेदनीय कर्म के निमित्त नाना प्रकार के कष्ट प्रर्थात् दुःख होने पर भी व्याकुल न होकर उस दुःख और क्लेश को पूर्वोपार्जित कर्म का फल समझकर समताभाव से कर्मों की निर्जरा के लिए सहन करना परिषह है । परिषद् बाईस प्रकार का है --
(१) क्षुधा, (२) तृषा, (३) शीत, (४) उष्ण, ( ५ ) वंशमशक ( ६ ) नग्नता, (७) परति (८) स्त्री, (६) चर्या, (१०) निषद्या, (११) शय्या, (१२) प्राक्रोश, (१३) वर्षा, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१६) सत्कार पुरस्कार (२० ) प्रज्ञा, (२१) श्रज्ञान श्रौर, (२२) प्रदर्शन |
इस प्रकार ये बाईस परीषह हैं ।
(१) अनशन उनोदर आदि त बहुत काल तक करने पर भी निर्दोष, शुद्ध, निरंतराय महार मिले तो ग्रहण करना और नहीं मिले तो खेद खिन्न न होकर क्षुधा श्रादि वेदना को धैर्यपूर्वक सहन कर लेना क्षुधा परीषह विजय है ।
(२) मुनि का भोजन दूसरे के आधीन है, इससे प्रकृति के विरुद्ध उष्ण प्रकृति वाले भोजन से अथवा ऋतु के ग्रीष्म प्रताप से तृषा सताए तो विकल चित न होकर शांतिरूपी जल से शान्त कर देना वह तृषा परी जय है ।
(३) संसारी जीव अंतरंग से विषय-वासना को और बाह्य लोक-लज्जा के वशीभूत होकर नग्न नहीं रह सकते हैं, नग्न होना बड़ा कठिन कार्य है परन्तु तपस्वी साधु वस्त्र रहित नग्न होकर भी माता की गोद के बालक के समान निर्विकार नग्न रूप से उत्पन्न हुई लोक-लाज को जीतकर निर्भय रहते हैं, निर्भय होकर रहना ही नग्न परीषह जय है ।
(४) अनेक प्रकार के देश, काल आदि जनित कष्ट माने पर तथा अत्यन्त क्षुधा, तृषा प्रादि की बाधा होने पर भी व्याकुलता रहित, शांतचित रहना वह अरति परिषह जय है ।
(५) जिन स्त्रियों के हाव-भाव आदि से महान बड़े-२ शूरवीरों का मन भी विकृत हो जाता है यह मुनि उसे जीतते हैं मतः यह स्त्री परिषह का जीतना है ।
(६) चार हाथ प्रमाण भूमि को भली प्रकार से देखकर नंगे पाँव मार्ग में गमन करते हुए सूखे तृण, कंटक पैरों में लगने पर भी प्रथवा छेदने पर प्रथम गृहस्थ अवस्था में भोगे हुए वाहन उपवाहनों को स्मरण न करना, व्याकुल तथा खेद खिन्न न होना वह चर्या परीषह जय है ।
(७) पर्वत को गुफा, शिला तथा वृक्षों के कोटरों में ध्यान करने के निमित्त संकल्प किए हुए प्रासन से उपसर्ग के कारण प्राने पर भी तथा मनुष्य चोर, सिंह, बाघ, वैरीकृत आक्रमण मादि की व धूप, शीत आदि की बाधा से आसन से न हटना, कायरता तथा व्याकुलता रहित निर्भय स्थिर रहना बह निषद्यापरीष जय है 1