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________________ णमोकार म ८.संवरामुप्रेक्षा कर्म वर्गणाओं के प्रागमन में निमित्त रूप मन, वचन, काय के योगों के तथा मिध्यात्व और कषाय मादि के मन्द होने से कर्म यास्त्रव का घटना संवर है। संवर से प्रास्वव रुकता है और बंध का प्रभाव होता है और बंध के न होने से संसार का प्रभाव होता है और जीव मुक्त हो जाता है। इस प्रकार संवर के स्वरूप का चितवन करना संवरानुप्रेक्षा है । ६. निराशुप्रेक्षा पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों के उदय के अनुसार इष्ट अनिष्ट सामग्री के समागम होने पर राग ष रहित साम्य भाव धारण करने से सत्ता में स्थित कर्मों का स्थिति अनुभाग न्यून होकर बिना फल दिये ही कर्म वर्गणायें कर्मस्व शक्ति रहित होकर समाप्त होती हैं। इस प्रकार संवरपूर्वक प्रात्मा के प्रदेशों के कमों का एकोदेश क्षय होना निर्जरा और समस्त कर्मों का प्रभाव मोक्ष कहलाता है। इस प्रकार निर्जरा के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। १०. लोकानुप्रेक्षा: यह समस्त लोक अनन्तानन्त प्राकाश के बीचोंबीच प्रनादि निधन तीन सौ तैतालीस राजू प्रमाण पनाकार है । वास्तव में तो लोक एक ही है। परन्तु व्यवहार में उसके उध्वं लोक, मध्य लोक पौर पाताल लोक ऐसे तीन लोक हैं । यह लोक उत्तर से दक्षिण को सात राजू लम्बा है और चौदह राज अंधा है और पूर्व से पश्चिम को तल में सात राजू चौड़ा है फिर ऊपर को कम से घटकर सात राजू को ऊंचाई पर मध्य लोक में एक राजू चौड़ा है पौर फिर क्रम से बढ़कर साढ़े दस राजू की ऊंचाई पर चौड़ाई पांच राज है । फिर क्रम से घटकर अन्त में एक राजू चौड़ाई है । यह लोक चारों तरफ से (१) घनोदधि वातवलय (२) धन वातवलय (३) तनु धातबलय, इन तीन वातवलयों से घिरा हमामाकाश के प्रदेशों में निराधार है। उसमें भरे हुए अनन्तानन्त जीव अनादि काल से अपने गुद्ध ज्ञान दर्शन को भूलकर इन्द्रिय जनित सुखों को प्राप्त करने के लिए यथार्थ स्वरूप जाने बिना प्रज्ञान वश मिथ्या मार्ग का सेवन कर नित्य प्रसह्य दुःख सहते हुए चतुर्गति में भ्रमण कर रहे हैं । जीवों के अतिरिक्त पुद्गल धर्म, अधर्म, माकाश मौर काल ये पाँच द्रव्य भोर भी इस लोक में स्थित है। इस प्रकार लोक के स्वरूप का चितवन करना लोकानुप्रेक्षा है। ११. बोषिकुलभ भावमा :--- साधारण स्थावर काय से प्रत्येक स्थावर काय होना दुर्लभ है फिर क्रमश: उत्तरोत्तर दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौधन्द्रिय मोर असैनी पंचेन्द्रिय पशु, भवनत्रिक देव, मलेच्छ शूद्र, स्वर्गवासी देव मार्य क्षेत्र में उत्तम कुलीन मनुष्य पर्याय का होना ऊंच गोत्र, दीर्घायु समस्त इन्द्रियों की परिपूर्णता, आत्म ज्ञान होने योग्य क्षयोपशम, पवित्र जिनधर्म की प्राप्ति, साधर्मी का सत्संग मोर बोधि प्रर्थात् रत्नत्रय का प्राप्त होना अतिशय दुर्लभ है । इस दुर्लभता का बारम्बार चितवन करना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है। १२. धर्मग्रनुप्रेक्षा :-- निश्चय में धर्म वस्तु का स्वभाव है । व्यवहार में रत्नत्रय स्वरूप तीन प्रकार उत्तम क्षमा मावि वश लक्षण रूप दश प्रकार व अहिंसा लक्षण रूप ही धर्म है । पास्मा का शुद्ध निर्मल स्वभाव ही
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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