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(८) डांस, मक्षिका, मच्छर, बिच्छू प्रादि तथा जंगली जन्तु पक्षौ जनित काटने, मारने की पीड़ा को ध्यान में मग्न रहते हुए शांतिपूर्वक बेदरहित सहन करना वह दंशमशक परीषहजय है । (2) पिछली रात्रि में कोमल या कठोर ककरीली भूमि पर अथवा शिला पर खेद न मानते हुए एक श्रासन से ग्ररूप निद्रा लेना और पूर्वकाल में कोमल शय्या पर शयन करते थे मौर महल में सुरक्षित रहते थे ऐसा न सोचना वह शय्या परीषह जय है ।
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(१०) ग्रीष्म काल में सूर्य के प्रताप से तपते हुए पर्वतों पर प्रतापन योग धारण कर गर्मी की बाधा को समभावों से सहन करना वह उष्ण परीषहजय है ।
(११) शीतकाल में जलाशयों के निकट ध्यान स्थित होते हुए शीतल पवन वा पाले की प्रसा घर बाधा को समभावों से खेद रहित सहन करना वह शीत परीषह्जय है ।
(१२) सर्व प्राणियों के हितकारक साधुओं को कोई दुष्ट, अनिष्ट, दुर्वचन चोर, ठग, पाखण्डी, लज्जा रहित, मूर्ख बताए तो उसको सुनकर क्षमा तथा शांति ग्रहण करना वह श्राक्रोश परीषहजय है ।
(१३) जहाँ कोई निरपराध ही अपने दुष्ट स्वभाव से मारने लग जाए वा बाँध दे तो उस पर रोष नहीं करना और शांतिपूर्वक खेदरहित सहन करना वह बंध परीषह का जीतना है।
(१४) चिरकाल पर्यंत घोर तप करते समस्त शरीर शुष्क हो जाने पर निर्दोष, शुद्ध, निरन्तराय, आहार आदि की प्राप्ति न होने पर भी लाभ के समान संतुष्ट रहना अर्थात् भोजन, पान औषध प्रादि की किसी से इच्छा प्रगट न करना याचना परीषह जय है ।
(१५) साघु शास्त्रोक्त नियत समय पर प्रहार के निमित्त दातार के घर जाकर याचना न करे, नवधा भक्ति सहित निरंतराय शुद्ध भोजन मिले तो लेवे नहीं तो महीनों का अंतर पड़ने पर भी तप से शिथिल, कायर न होकर उससे पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा जानकर साम्यभाव धारण कर खेदयुक्त न होना वह भलाभ परीषह का जीतना है।
(१६) वात, पित्त, कफ आदि की न्यूनाधिकता से उत्पन्न हुई पीड़ा की चिकित्सा की वांछा नहीं करना, रोग जनित पीड़ा को लेदरहित सह लेना वह रोग परीषह जय है ।
(१७) मार्ग में गमन करते समय तृण, कंटक, कंकरों के चुनने पर भी उससे उत्पन्न वेदना को साम्यभाव से सह लेना तथा पाँव में अथवा अन्य मंगों में कांटा फांस श्रादि के लगने पर अपने हाथ से न निकाला और न निकलवाने की इच्छा करना और यदि कोई स्वतः निकाल दे तो उसमें हर्ष नहीं मानना वह तृण स्पर्श परीषह जीतना है।
(१८) यावज्जीवन स्नान का त्याग करने पर अपने शरीर पर पसेव से भीगे अंगों पर धूल पड़ने से उत्पन्न हुआ ग्लानि का कारण मल को देखकर उसके दूर करने के निमित्त स्नान आदि की इच्छा न करना मौर न ही उसके कारण चित्त में खेद करना वह मल परीषद् जीतना है।
(१६) स्वयं अत्यन्त प्रौर वृद्ध होने से सत्कार के योग्य होते हुए भी कोई आदर, सत्कार, प्रणाम आदि न करे तो चित्त में खेद न करना और मानापमान में समभाव रखना सत्कार पुरस्कार परीषह का जीतना है।
(२०) तर्क, छन्द, कोष, व्याकरण आदि का विशेष ज्ञान होते हुए भी विद्वत्ता का अभिमान न करना प्रज्ञा परोषह जय है ।