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णमोकार रेप
(२१) घोर तपश्चरण प्रादिगार पर भी प्रयथि, मनः पप गोपाल नाम की स्वयं को प्राप्ति नहीं होती तथा अन्य को अल्पकाल और थोड़े तपश्चरण आदि से ज्ञान की प्राप्ति देखकर खेद खिन्न-न होना और तप से शिथिल न होना अज्ञान परीषह जय है।
(२२) बहुत काल पर्यन्त घोर तप करते हुए भी ऋखि प्राप्त न हो तो चित्त में ऐसा विकल्प न करना कि शास्त्र में ऐसा सुना है कि तप के बल से अनेक प्रकार की ऋद्धि प्राप्त होती है । परन्तु मुझे बहुत काल से कठिन-कठिन तप करते हुए भी किसी प्रकार की ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई। कदाचित् यह शास्त्रोक्त वार्ता असत्य तो नहीं है इस प्रकार संदेह न करना प्रदर्शन परीषह जय है।
___ इन बाईस परीषह जनित पीड़ा को समभावों से सहन करना भी परम संवर का कारण है। ये सब परीषह किन-२ कर्म कृत कितनी पौर किन-२ गुणास्थानों में कितनी-२ होती हैं उनका वर्णन करते हैं :
इनमें से ज्ञानावरण के उदय से प्रज्ञा, अज्ञान दो और दर्शन मोह के उदय से प्रदर्शन होती हैं। नग्न, निवद्या, स्त्री, सत्कार, पुरुस्कार, दुर्वचन याचना, मरति-धारित्र, मोह के उदय से होती है । अलाभ अन्तराय के उदय से होती है और क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, देशमशक, चर्या, शय्या, बधर्वधन, रोग, तण स्पर्श, मल वेदनीय के उदय से होती है। नवमें गुण स्थान तक बाईस परीषह होती है साथ उन्नीस परीषह तक हो सकती है, क्योंकि शीत उष्ण में से एक काल में एक ही होगी और चर्या' शय्या, निषद्या इन तीनों में से एक काल में एक ही होगी। इस प्रकार उन्नीस परिषह ही एक साथ उदय हो सकते हैं दशर्वे, ग्यारहवें और बारहवें गुण स्थानों में शानावरण, अन्तराय, वेदनीय के उदय से जनित चौदह परीषह होती है यथा प्रज्ञा, प्रज्ञान, अलाभ, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, बंध, रोग, तृण स्पर्श और मल होती है । बारहवें गुणस्थान के अन्त में शेष तीन घातिया कर्मों का नाश करके सयोग केवली नामक तेरहवें गुण स्थान को प्राप्त होकर संसार के समस्त त्रिकालवी चराचर पदार्थों को युगपत हस्तकमलबत् प्रत्यक्ष जानते हैं । इस गुण स्थान में चारों घातियाकर्मों के प्रभाव से केवल वेदनीय कर्म जनित ग्यारह परीषह होती है। परन्तु मोहनीय कर्म के प्रभाव होने से वेदनीय कर्म का उदय ; पग्नि से जली हुई रस्सी के बल के समान नाम मात्र रहता है परन्तु जोर नहीं कर सकता है अर्थात् यह ग्यारह परीषह केवली भगवान् को किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचा सकती हैं इसीलिए यह न होने जैसी है। पांच प्रकार का चारित्र धर्म
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय, भौर यथाख्यात-इस प्रकार पांच प्रकार का चरित्र है । व्रत धारण करना, पंच समिति पालन, कषायों का निग्रह, मन, वच, काय, की पशुभ प्रवृत्ति का त्याग और इन्द्रियों की विजय जिस जीव के हो उसे संयम गुण प्रगट होता है । सामायिक चारित्र
सम्पूर्ण सावध योगों का भेद रहित त्याग करना सामायिक चारित्र है। छेदोषस्थापना चारित्र
प्रमादश सावध कम हो जाने से तज्जनित दोष की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित लेकर खेद देना और पुनः प्रारमा को बत धारणादि संयम रूप क्रिया में प्रवर्तावने को छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र--
जीवों की पीड़ा का परिहार करने से प्रादुर्भूत पात्मा की शुद्धि विशेष को परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं।