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________________ गमोकार च सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र उपशम श्रेणी अथवा अपक श्रेणी वाले जीव के अति सूक्ष्म कषाय के उदय से सूक्ष्म सांपराय नामक दसवें गुणस्थान में जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म सांपराय चारित्र कहते हैं। ययाख्याप्त चारित्र कषायों के सर्वथा प्रभाव होने से उत्पन्न हुई शुद्धि विशेष को यथास्यात चारित्र कहते हैं। सामायिक मौर छेदोपस्थापना चारित्र प्रमत्त विरत संशक छठे गुणस्थान से अनियतिकरण नामक नव गुणस्थान तक होते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र प्रमत्त और अप्रमत्त संज्ञक छठे, सातवें गुणस्थान में होते हैं । सूक्ष्म सांपराय चारित्र सूक्ष्म सांपराय संझक दसवें गुण स्थान में होता है और यथाख्यात पारित उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में से प्रायोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान तक होता है । इसमें विशेषता ये है कि ग्यारहवें चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से पौर ऊपर के तीन गुणस्थानों में भय से यह संयम होता है । इस प्रकार संकर के होने के मुख्य छ: कारणों का वर्णन किया गया है। निर्जरा तत्व का वर्णन प्रात्मा के प्रदेशों से कर्मों का एकोदेश क्षय हो जाना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है। निर्जरा के दो भेद - सविपाक निर्जरा और प्रविपाक निर्जरा। सविपाक निर्जरा-- सत्ता स्थित कर्मों का उदय में प्राकर एकोदेश क्षय हो जाना सविपाक निर्जरा है । यह निर्जरा सम्पूर्ण संसारी जीवों के अपने आप सदाकाल होती रहती है। यह मोक्ष में कार्यकारी नहीं होती क्योंकि जैसे-जैसे क्रम पूर्वक पूर्व संचित कर्म वर्गणा उदय काल आने पर प्रपना फल देकर निर्जरती है, उसी प्रकार नवीन-नवीन कर्म वर्गणामों का प्रागमन होकर फिर नूतन कर्म बंध होता है । अतः संसार का ही कारण है। जैसे वृक्ष के पके हुए फल भोगने पर वीर्य उपजन शक्ति से नवीन वृक्ष उगाए जाने पर फल देते हैं। यह परिपाटी क्रमशः चलती रहती है । प्रविपाक निर्जरा कर्मों का उदय काल के प्राए बिना ही, बिना फल दिये ही, यात्मा के प्रदेशों से एकोदेश क्षय हो जाना प्रविपाक निजरा है । यह मोक्ष के लिए कारण है क्योंकि इसमें नवीन कर्मों का बंध नहीं होता जैसे वृक्ष के ऐसे कच्चे फल जिनमें बीज उगने योग्य न हुए हों और पकने योग्य न हुए हों और कच्चे ही तोड़कर भोगे जाएं तो आगे के लिए बीज नष्ट हो जाता है जिससे पुनः वृक्षोत्पत्ति नष्ट हो जाती है और वक्ष को मल से खोद कर भस्मीभत करे तो वक्ष और बीज दोनों का प्रभाव हो जाए: उसी प्रकार घोर परीषह, जीव, तप करके कर्मों को बलात्कार उदय में लाएं तो वीर्य नष्ट हो जाता है। वे फिर शुक्ल ध्यान रूपी पावक से मोहनीय मादि कर्म वृक्षों को समूल नष्ट करे तो मोस प्राप्त होता है। अब अविपाक निर्जरा के कारण बारह प्रकार के तप का वर्णन किया जाता है । यद्यपि तप दस प्रकार के धर्मों के अन्तर्गत हैं परन्तु संवर पूर्वक निर्जरा का प्रधान कारण होने से इनको भिन्न कहा गया
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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