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________________ गमोकार प्रय उत्तम आकिंचन्य धर्म शुद्ध चैतन्य प्रमूर्तिक प्रास्मा से सर्वथा भिन्न स्वरूप पुद्गलमयी रूपी अन्तर्बाह्य चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग तथा शरीर से निर्ममत्व का होना प्राकिचन है। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म स्पर्श इन्द्रिय के विषय, मैथुन कर्म से सर्वथा परान्मुख होने को ब्रह्मचर्य और ब्रह्मा अर्थात् निजारमा में रमण करने को निश्चय ब्रह्मचर्य कहते हैं अर्थात उत्तम ब्रह्मचर्य कहते हैं। इस प्रकार उक्त दस धर्म मम को धारण करने चाहिये । डावश प्रमुशा जो वैराग्य उत्पन्न करने को माता समान और बारम्बार चिन्तवन करने योग्य हो वह अनुप्रक्षा कहलाती है। वह बारह हैं। (१) अनित्य (२) प्रशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचि (७) प्रास्त्रव (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोक (११) वोधिदुर्लभ (१२) स्वाख्यातत्व (धर्म)। इन बारह प्रकार के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा है। १. अनित्य अनुप्रेक्षा सांसारिक पदार्थ देह, धन, सम्पत्ति, घोड़ा, हाथी, स्त्री, कुटुम्बी, मित्रादि तथा प्राज्ञा मानने वाले चाकर तथा पंचेन्द्रियों के भोग ये सब घोड़े-थोड़े दिन रहने वाले हैं और जल के बुलबुले के समान अस्थिर है, अनित्य हैं जैसे इन्द्र धनुष देखते ही विलय हो जाता है व बिजली शीघ्र ही चमक कर विलय हो जाती है, ऐसा ही इन पदार्थों का संयोग है, पुण्य क्षीण होने पर सब चले जाते है । इस प्रकार चितवन करना प्रनित्यानुप्रेशा है। २. प्रशारण अनुप्रेक्षा जैसे वन के एकान्त स्थान में सिंह के द्वारा पकड़े हुए मृग की कोई शरण नहीं होती उसी प्रकार इस संसार में काल के मुख का ग्रास बने हुए प्राणियों को कोई शरण नहीं है । इन्द्र, धरणेद्र, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण, राजा महाराजादिक भी अवधि पूर्ण होने पर काल के गाल में चले जाते हैं तो पौरों की क्या रक्षा करेंगे । जल में, थल में, नभ में, नरक में, सर्व संसार में कोई भी स्थान शरण योग्य नहीं हैं । जितनी चाहे मणि हो, चाहे जितने मंत्र, यंत्र औषधि प्रादि किये जायें परन्तु कोई भी काल से नहीं बच सकते हैं । काल से वे ही बचे हैं जिन्होंने प्रात्म कल्याण करके सब कमों से मुक्त हो अविनाशी पर पाया है । यह पद जिस पूज्य धर्म से प्राप्त होता है वह धर्म ही व्यवहार में शरण है और निश्चय में यह प्रात्मा अपने को माप ही शरण रूप है। इस प्रकार चिन्तबन करना प्रशरण अनुप्रेक्षा है। संसाराभुप्रेक्षा यह संसार जन्म, जरा, मरण दुःखस्वरूप है । इसमें जीव निरन्तर एक देह से दूसरे शरीर में जन्म ले-लेकर चतुगंति में दुःख सहन करते है । पृथ्वी काय योनि सात लाख, जल काय योनि सात लाख, अग्निकाय योनि सात लाख, पवन काय योनि सात लाख, प्रत्येक वनस्पति काय योनि दस लाख ये सब मिला कर बावन लाख भेद स्थावर एकेन्द्रिय के हैं। जिन्हें स्पर्शन इन्द्रिय मात्र का ज्ञान है वे खनन, तपत
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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