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________________ णमोकार प्रम ३४३ (१) श्रीकंठ, (२) हरिकंठ, (३) नीलकंठ, (४) अश्वकंठ, (५) सुकंड (६) शिखि कंठ, (७) अश्वग्रोव, (८) ऋयग्रीव पोर (B) मयूरग्रीव । इनका मरण नियम के अनुसार नारायण द्वारा ही होगा। भविष्य में जो ग्यारह रुद्र होंगे उनके नाम इस प्रकार होंगे-(१) प्रमद, (२) सम्मद, (३) हरष, (४) प्रकाम, (५) कामद, (६) भव, (७) हरि, (८) मनोभव, (६) भार (१०) काम पौर (११) प्रंगज । इस प्रकार उत्सर्पिणी काल के तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण प्रतिनारायण और बलभद्र आदि प्रधान पुरुषों के नामों का वर्णन किया। ये सब अनागत चौथे काल में उत्पन्न होंगे। पश्चात् तृतीय काल का प्रारम्भ होगा । तब पुनः क्रम से तीसरे, दूसरे, प्रथम काल में जघन्य मध्यम और उत्तम भोग भूमि की रचना होगी। उन तीनों भोगभूमियों में क्रमश: एक पल्य, दो पल्य तथा तीन पल्य पर्यन्त प्रायु के धारक होते हैं तथा कांतियुक्त एक कोश, दो कोश और तीन कोश ऊंचे और क्रमशः सुवर्णसम इन्दुसम, तथा हरित वर्ण के धारक होते हैं। उन भोगभूमियों में भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, ज्योतिरांग, भूपणांग और पानाँग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए मनोभिलषित अनेक प्रकार के उत्तम उत्तम भोगों को भोगकर तदनन्तर शेष बचे पुण्य से स्वर्ग में जाकर सुख भोगते हैं। इस प्रकार उत्सपिणी काल के समाप्त होने पर पुन: प्रवसर्पिणी काल प्रारम्भ होगा। ऐसे ही प्रनादि काल से उत्सपिणी के पीछे अपसपिणी काल का धारा प्रवाह रूप से चक्र चला आ रहा है और ऐसे ही अनादि काल तक चला जाएगा। इति मध्य लोक वर्णनम् । प्रथ सर्व लोक वर्णनम् : - उर्ध्व लोक के सामान्यतः दो भेद हैं-एक कल्प और दूसरा कल्पातीत । इन दोनों में वैमानिक देव रहते हैं। अब प्रथम देवों की वैमानिक संज्ञा जानने के लिए इनके प्रकारों का वर्णन करते हैं देवों के मुख्य भेद चार है--भवनवासी, व्यंसर, ज्योतिष और वैमानिक । इन वैमानिक पर्यन्त चार प्रकार देवों के क्रम से दस, पाठ, पांच और बारह भेद हैं अर्थात् दस प्रकार के भवनवासी, पाठ प्रकार के व्यन्तर, पाँच प्रकार के ज्योतिष और बारह प्रकार के वैमानिक देव होते हैं। जिनमें रहने से विशेष पुण्यवान माने जाएं उन्हें विमान और उनमें रहने वालों को वैमानिक कहते हैं। वे स्थान भेद से दो प्रकार के हैं-एक करूपोपपन्न, दूसरे कल्पातीत । सौधर्म मादि सोलह स्वर्गों के विमानों में इन्द्र आदि की कल्पना होती है इस, कारण उनको कल्प संज्ञा है और उसमें निवास करने वालों को कल्पोपपन्न वा कल्पवासी कहते हैं। इन्हीं के बारह भेद हैं. कन्यातीतों के नहीं। जिन विमानों में इन्द्र आदि की कल्पना नहीं है, ऐसे अवेक आदि को कल्पातीत कहते हैं और उसमें निवास करने वालों की अहमिन्द्र संज्ञा है। पूर्वोक्त भवनवासी प्रादि चार प्रकार के देवों में (१) इन्द्र (२। प्रत्येन्द्र (३) लोक पाल, (४) बायस्त्रिंश, (2) सामानिक. (६) अंगरक्षक (७1 पारिषद, (८)मानीक, (६) प्रकोणक, (१०)अभियोग्य 4(११) किल्विषक ऐसे ग्यारह भेद होते हैं। अब यहां पर प्रसंगवश इन्द्र प्रादि दश प्रकार के देवों का उदाहरण सहित लक्षण लिखते हैं अन्य देवों में न पाए जा सकने वाले अणिमा, महिमा आदि गुणों से जो परम ऐश्वर्य को प्राप्त हों उसे इन्द्र कहते हैं । जो शासन ऐश्वर्य रहित इन्द्र के समान ऐश्वयं धारण करने वाले हों उन्हें प्रत्येन्द्र कहते हैं ।२।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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